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काव्यप्रकाश - अनन्त एवं अक्षय मोक्षसुख प्राप्ति के लिए परिग्रह पाप से विरक्त हो विरक्त हो, प्रपंच (मायाजाल) का त्याग कर त्याग कर, मोड़ की छोड़ दी छोड़ दो, आत्मतत्त्व को जान लो, ज्ञान लो, चारित्र को धारण करो धारण करो, अपने स्वरूप को देख लो, देख लो, और पुनः पुनः पुरुषार्थ करो, पुरुषार्थ करो । इस काव्य में मालिनी छन्द में प्रसादगुण का प्रयोग किया गया है जिससे शान्तरस को पुष्टि करने में पुनः पुनः प्रेरणा मिलती है।
रत्नत्रय पूजा के अन्त में शुभ आशीर्वाद
मोहमल्लममा यो,
व्यजेष्टनिश्चयकारणम् ।
करीन्द्रं वा हरिः सोऽर्हन्, मल्लिः शल्यहरोऽस्तु वः॥'
काव्यभाव - जिस प्रकार प्रबल सिंह हाथों को जीत लेता है उसी प्रकार जिन तीर्थंकरों ने मोहरूपी सुभट को बड़ी आसानी से जीत लिया है वे श्री मल्लिनाथ अर्हन्त आप के या सकल प्राणियों के दुःखों का विनाश करें ।
इस काव्य में अनुष्टुप् छन्द है, रूपक और उपमा के द्वारा वीररस की पुष्टि होती हैं और मंगल आशीष से आत्मा में शान्ति लाभ होता है ।
ईसवीय ग्यारहवीं शती में आचार्य मल्लिषेण द्वारा संस्कृत में इस रत्नत्रय पूजा का प्रणयन किया गया है, कारण कि इस पूजा के अन्त में आशीर्वाद रूप काव्य कं अन्तगंत 'मल्लिः' यह संकेत मिलता है। इस महापूजा के मध्य चौवीस काव्यों में समुच्चय रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र) का पूजन किया गया है। इसके अनन्तर इक्यावन काव्यों में सम्यग्दर्शन का पूजन कहा गया है । तदनन्तर पचास काव्यों में सम्यग्ज्ञान का पूजन कहा गया है। तत्पश्चात् बासठ काव्यों द्वारा सम्यकृचारित्र का सम्यक् अर्चन किया गया है। कुल मिलाकर इस पूजा में 197 काव्यां द्वारा अक्षय रत्नत्रय का पूजन भक्ति भाव के साथ किया गया है। विविध छन्दों के प्रयोग से काव्यों में मधुरता, विविध अलंकारों की छटा से काव्यों में रमणीयता और प्रसाद माधुर्य आदि गुणों से काव्यों में आत्मोयता और भावों की गम्भीरता से काव्यों में सफल सार्थकता झलकती है। अतः मानव को रत्नत्रय की साधना करना आवश्यक है।
हिन्दी भाषा में रत्नत्रयपूजा और उसके महत्त्वपूर्ण काव्य
अठारहवीं शती के प्रसिद्ध कविवर धानतराय जी ने इस रत्नत्रय पूजा का निर्माण हिन्दी में किया है। इसमें रत्नत्रय की सामूहिक पूजा ग्यारह काव्यों में निबद्ध है, पश्चात् सम्यग्दर्शन का पूजन चौदह काव्यों, सम्यग्ज्ञान का पूजन- चौदह काव्यों में और सम्यक् चारित्र का पूजन इक्कीस काव्यों में रचा गया है। इस पूजा में दोहा,
1. ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ. 299
जैन पूजा - काव्यों में रच-त्रय : 231