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(ख) दीक्षान्वय क्रिया
(1) अवतार ( 2 ) वृत्तलाभ, (3) स्थानलाभ (4) गगग्रह (5) पूजाराध्य, (6) पुण्ययज्ञ, (7) दृढ़चर्चा, (8) उपयोगिता, ( 9 ) उपनीति, ( 10 ) व्रतचर्या, (11) बतावतरण, ( 12 ) पाणिग्रहण, ( 13 ) वर्णलाभ ( 14 ) कुलचर्या, (15) गृहशिता, ( 16 ) प्रशान्तता, ( 17 ) गृहत्याग, ( 18 ) दीक्षाद्य, ( 19 ) जिनरूपत्व, ( 20 ) दीक्षान्वय । (ग) क्रियान्वय क्रिया
सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं, पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं पदमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तकम् ॥
(1) सज्जातित्व (सत्कुलल्य), (2) सद्गृहस्थना (3) पारिकय (4) सुरेन्द्रपद, (3) साम्राज्यपद ( 6 ) अहंन्तपद, ( 7 ) निर्वाणपदप्राप्ति । ये सात क्रियान्वय क्रियाएँ हैं । '
इन समस्त क्रियाओं में धर्मसाधना की प्रक्रिया वर्णित है। इन क्रिया (संस्कारों) मैं देव-शास्त्र-गुरु पूजा का यथायोग्य विधान है।
उपसंहार
जैन पूजा - काव्य के इस षष्ठ अध्याय में कर्मकाण्ड के विधिविधान का वर्णन किया गया है। कर्मकाण्ड का अर्थ होता है कि वे क्रिया संस्कार या कर्तव्य, जिनके आचरण से आत्मा की पवित्रता हो, जीवन का विकास हो, सदाचार की वृद्धि हो, श्रद्धा के साथ ज्ञान का विकास हो और शारीरिक बल की उन्नति हो। जिस प्रकार मणि ( रत्न) का मूल्यांकन बिना संस्कार के नहीं होता है, उसी प्रकार मानव का मूल्यांकन या योग्यता बिना संस्कार के नहीं हो सकती। अतएव मानव-जीवन के विकास के लिए संस्कारों या कर्मकाण्ड की महती आवश्यकता है।
इस प्रकरण में इसी ध्येय को स्थिर कर सोलह संस्कारों की शास्त्रोक्त विधि, व्याख्या, पूजा- काव्य, मन्त्र और शान्ति हवन का निर्देश किया गया है, जिससे कि मानव विवेक के साथ संस्कारों की साधना कर सर्वतोमुखी मानवता का विकास कर सकें। नीतिकारों का कथन है :
दीप्यते ।
यथादयगिरेद्रव्यं, सन्निकशें तथा सत्सन्निधानंन मूखों याति प्रवीणताम् ॥
सारांश - जैसे सूर्य के संयोग से उदयाचल का द्रव्य चपकता है, उसी प्रकार
1. डॉ. नीमचन्द्र ज्योतिषाचार्य आदिपुराण में प्रतिपादित भारत प्रश्र णेशप्रसाद वर्मा ग्रन्थ माला, अस्सी वाराणसी, सन् 1-1
294 जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन