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यथाविभवमत्रापि, ज्ञेयः पूजापरिच्छदः ।
उपाध्याय पदे चास्य, मतोऽधाती गृहवती ॥ तात्पर्य-लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ संस्कार पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में करना चाहिए। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त की अत्यावश्यकता है। योग, वार, नक्षत्र ये सब ही शुभ अर्थात् विद्यावृद्धिकर होने चाहिए । उपाध्याय (गुरु) इस विषय का अत्यन्त ध्यान रखे।
इस संस्कार में आचार्य को इस शुभ मुहूर्त का बहुत ध्यान होना चाहिए। ज्योतिषशास्त्र में वारों का पल इस प्रकार है –गवार को वियागभ पारने से बुद्धि अत्यन्त प्रखर (तेज) होती है। बुधवार तथा शुक्रवार को बुद्धि शुद्ध होती और बढ़ती है। रविवार को विद्यारम्भ करने से आयु बढ़ती हैं। सोमवार को मूर्खता, मंगलवार को मरण और शनिवार को विद्यारम्भ करने से शरीर का क्षय होता है।
बालक के पाँचवें वर्ष में, सूर्य के उत्तरायण होने पर विद्यारम्भ की कराना उत्तम है। मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्प, आश्लेषा, मूल, हस्त, चित्रा, स्वाती, अश्विनी, पूर्वा, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, श्रवण, धनिष्ठा, शततारका-य नक्षत्र शुभ हैं। इस प्रकार योग
और लग्न आदि भी देखकर मुहूर्त निश्चित कर लेना चाहिए। जिस दिन मुहूर्त निकले उस दिन प्रथम ही श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा तथा गुरु एवं शास्त्र की पूजा कर पूर्व के समान शान्ति हवन करें। अनन्तर बालक को स्नान कराकर वस्त्र अलंकार पहनाते हुए चन्दन का तिलक लगाकर विद्यालय अथवा पाठशाला में ले जाएँ । शिक्षा देनेवाले गुरु महोदय को वस्त्र, अलंकार, श्रीफल और कुछ राशि उपहारस्वरूप देकर बालक स्वयं करबद्ध नमस्कार करे।
गुरु महोदय स्वयं पूर्वदिशा की ओर मुखकर बैठें। बालक को अपने सामने पश्चिम दिशा की ओर मुख कराकर बिठाएँ और उसे धर्म, अर्थ, काम-इन तीनों पुरुषाथों को सिद्ध करने योग्य बनाने के लिए अक्षरारम्भ संस्कार प्रारम्भ करें। प्रथप ही उपाध्याय एक बड़े तख्ने पर अखण्ड चावलों को बिछाएँ और उस पर हाथ से-“ओं नमः सिद्धेभ्यः" यह मन्त्र लिखकर, "अ आ इ ई उ ऊ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः" ये स्वर और "क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह" ये व्यंजन लिखें। अनन्तर बालक के दोनों हाथों में सफ़ेद पुष्प और अक्षत देकर लिखे हुए अक्षरों के समीप रखा दें और फिर-“ओं नमो अहन्ते नमः सर्वज्ञाय सर्वभाषा भाषित सकल पदार्थाय बालक अक्षराभ्यासं कारयामि द्वादशांगश्रुतं भवतु भवतु ऐ ओं हीं क्लीं स्वाहा ।" यह मन्त्र पढ़कर उन लिखे हुए अक्षरों के समीप ही बालक के हाथ से वहीं "ओं नमः सिद्धेभ्यः" मन्त्र और अकार से प्रकार पर्वन्त अक्षर लिखाएँ।
इस प्रकार वह बालक गुरु के कथनानुसार अक्षरों का अभ्यास करें। जय अक्षराभ्यास पूरा हो जाए तब पुस्तक पढ़ना प्रारम्भ करें। जिस दिन पुस्तक पढ़ना
246 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन