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पापक्रियाविरमणं चरणं किलेति रत्नत्रयं हृदिदधे व्यवहारतोऽहम् ॥'
तात्पर्य - चतन और अचेतन पदाथों में श्रद्धा करना अथवा सत्यायं दव-शास्त्र गुरु में श्रद्धा (दृढ विश्वास) करना सम्यग्दर्शन कहा जाता है। जीव-अजीव आदि सात तत्त्वों का सत्यार्थ ज्ञान करना सम्यक्ज्ञान है और हिंसा आदि पापक्रियाओं से निवृत्त होना सम्यक्चारित्र है। ऐसे व्यवहार रत्नत्रय को मैं चित्त से धारण करता हूँ । जो निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति का साधन है वह व्यवहाररत्नत्रय कहा जाता है।
अब 'निश्चयरलत्रय' पर विचार किया जाता है जो परमविशुद्ध उद्देश्य (लक्ष्य) रूप होता है, अखण्ड एवं अक्षय स्वरूप होता है । ( 1 ) शुद्ध आत्मा का निश्चय या श्रद्धा करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। जो आत्मा अन्य द्रव्यों से भिन्न, नित्य, अखण्ड, अविनाशी, ज्ञानदर्शनस्वभाव वाला है। (2) अन्य द्रव्यों से भिन्न आत्मा का विशेषज्ञान सम्यक् ज्ञान है। (3) राग, द्वेष, मोह, माया, लोभ आदि से रहित शुद्ध आत्मा में लीन होना 'निश्चय सम्यक् चारित्र' कहा जाता है, इस निश्चय रत्नत्रय को मैं नमस्कार करता हूँ । इसी तात्पर्य को दर्शानेवाला काव्य रत्नत्रय पूजा में कहा गया है
दर्शनमात्मविनिश्चितिः, आत्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं निश्चयरत्नत्रयं वन्दे ॥
हम उस रत्नत्रय को नमस्कार करते हैं जो जन्म, दुःख और मरण रूपी तीन सर्पों के विष को हरण करनेवाला है। जिस रत्नत्रय आभूषण को धारण करके साधु महात्मा तपस्या के द्वारा क्षोण शरीर वाले होने पर भी या विकृत आकृति वाले होने पर भी मुक्तिरूपी लक्ष्मी के प्रिय हो जाते हैं अर्थात् मुक्ति को प्राप्त हो जाते हैं । इसी आशय का काव्य रत्नत्रय पूजा में कहा गया है-
सर्पत्रयीदहर
रत्नत्रयं
तज्जननार्तिमृत्यु,
नमामि ।
यद् भूषणं प्राप्य भवन्ति शिष्टाः सुक्तेः विरूपाकृतयोप्यभीष्टाः ॥
इस काव्य में रत्नत्रय धर्म का महत्त्व, रूपक तथा आश्चर्य अलंकारों की छटा से विशेष रूप से दर्शाया गया हैं।
सम्यग्दर्शन को विकसित करने की भावना
मोक्षरूपी सम्पत्ति जिसमें प्रतिदिन प्रमोद के साथ विकसित होती है, समयसार (आत्मा) के रस से परिपूर्ण वह सम्यग्दर्शनरूपी कमल मेरे मनरूपी मानस सरोवर में विकसित होवे । इसी आशव को व्यक्त करनेवाला काव्य रत्नत्रय पूजा में कहा गया हैं
1. ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ. 2:45
जैन पूजा काचों में रत जय 225