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प्रतिदिनं खलु यत्र वितन्वते कृतमुदा वसति शिवसम्पदा ।
समवसाररसे मम मानसे, तदवतारमुपेतु दृगम्युजम्॥' इस काव्य में द्रुतावेलाम्बत छन्द आर रूपकालंकार शान्तरल का पोषक है। अक्षत द्रव्य से सम्यग्दर्शन का पूजन
जिल सम्यग्दर्शन के होने पर स्वप्न में भी दुःखों के स्थानरूप नरकों में प्राणियों का पतन नहीं होता है। उस अष्टांग सम्यग्दर्शन की मनोहर अक्षतों से हम पूजा करते हैं। इसी तात्पर्य का प्रबोधककाव्य
स्वभ्रषु इःखानिए प्रपातः, स्वप्नेऽपि यस्मिन्सति नांगभाजाम्। साप्तांगमचामि सुदर्शनं तत्, रत्नं विशुद्ध ललिताक्षतीयः।।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग जिस प्रकार मानव शरीर के आठ अंग होते हैं-1) दक्षिणपाद, 2) वामपाद, (3) वामहस्त, 14 दक्षिणहस्त, (5 नितम्ब, (6) पीठ, 17 हृदयस्थल. 18) मस्तक। इन अंगों से शरीर की शोभा होती हैं, शरीर का दैनिक कार्य और पुष्टि होतो है, यदि एक भी अंग न हो तो शरीर की शोभा नष्ट हो जाता है और शरीर से कार्य भी नहीं हो सकता। उसी प्रकार सम्बग्दर्शन के भी क्रमशः आठ अंग होते हैं इनसे सम्बग्दर्शन की पूर्णता, शोभा और कार्य सम्पन्न होते हैं। के अंग क्रमशः-(1) निःशंकित अंग (परमात्मा), उनकी वाणी तथा इनके उपासक गुरुजी में सन्देह नहीं करना ओर भय नहीं करना। (2) निःकांक्षित अंग-(धर्म की साधना करते हुए राज्य धन आदि की इच्छा न करना, (निर्विचिकित्सित अंग (धर्म और धर्मात्मा- मानव में ग्लानि न करना), 14) अमृडदृष्टि अंग (तत्य और असत्य का निर्णय करने हेतु परीक्षा प्रधानी होना, उपगूहन अंग (उपकार की भावना से अपने गुणों को छिपाना और दूसरे के दोषों को छिपाना बधा अपने धार्मिक तत्त्वों को उन्नत करना), (6) स्थितिकरण (धर्म में भ्रष्ट्र हात हाप अपने लथा दूसरे व्यक्ति को धार्मिक कर्तव्यों में पुनः स्थिर करना), (7) वात्सल्य अंग गाय और बछड़े की तरह धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय बन्धुओं में निष्कपट प्रेम करना (8 प्रभावना अंग (स्व-परकल्याण के लिए धार्मिक एवं नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार करना । जैसे एक भी अक्षर रहित मन्त्र विष की वेदना को नष्ट करने के लिए समर्थ नहीं है उसी प्रकार आम अंगों में से एक भी अंग रहित सम्यग्दर्शन जीवन मरण के दुःखों को दूर करने के लिए समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए जैनगूजा-कानों में अप्टांग सम्यग्दर्शन की पूजा का विधान किया गया है।
पालांक :2 21, " !: श्तांक ---
1. ज्ञानपीट पूजाजन. पृ. ॥ 2. तधब, .245, ना ..!
226 :: जैन पूज-काय ·फ चिन्न।