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ज्यों में न सके भण्डारी, परघन को हो रखवाग।
यह अन्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ श्री इन्द्रध्वज विधान
इन्द्रध्वज विधान का प्रणयन पूज्य आयिकारत्न श्री ज्ञानमती माता जो न किया है जिसकी समाप्ति सन् 1976 में उत्तरप्रदेशीय मुजफ्फरनगर ज़िला अन्तर्गत खताली नगर में, चातुर्मासयोग के अवसर पर की गयी है। इस विधान में छोटी-बड़ी वाहत्तर पूजाएँ, 458 अर्घ्य, 68 महायं और 51 जयमालाएँ शोभायमान हैं। इस श्रेष्ट विधान में इकतालीस प्रकार के हिन्दी तथा संस्कृत छन्दों के प्रयोग से प्रायः 1500 पद्यकाव्यों की रचना की गयी है। इस विधान में मध्यलोक के 458 अकृत्रिम जिनमन्दिरों का अष्ट द्रव्य से पूजन किया गया है। उदाहरणार्थ इस विधान के कुछ पद्य प्रस्तुत किये जाते हैं
ग्रह भूत पिशाचक्रूर व्यन्तर, नहिं रंच उपद्रव कर सकते, जो अनुष्ठान करते विधिवत् उनके सब दुख संकट टलते। अतिवृष्टि अनावृष्टी ईती भीती संकट टल जाते हैं
नित समय-समय पर इन्द्र देव, अमृतसम जल बरसाते हैं।' इन दो पद्यों में वीरछन्द और उपमा एचं स्वभावोक्ति अलंकारों के द्वारा विधान का महत्त्व मानस को प्रमुदित कर देता है। स्थापना का पद्य
सिद्धी के स्वामी सिद्ध चक्र, सब जन को सिद्धी देते हैं साधक आराधक भव्यों के, भव भव के दुख हर लेते हैं। जिन शुद्धात्मा के अनुरागी, साधू जन उनको ध्यातं हूँ
स्वात्मैक सहज आनन्द ममन, होकर वे शिवसुख पाते हैं।' जल अर्पण करने का पध-शुम्भ छन्द
गंगा का उज्ज्वल जल लेकर, कंचन झारी भर लाया हूँ भव भव की तृषा बुझाने को, त्रयधारा देने आया हूं। जो शाश्वत जिनप्रतिमा राजें, इस मध्य लोक में स्वयं सिद्ध उनकी पूजा नित करने से, निज आत्मा होती स्वयं सिद्ध
1. इन्द्रध्वजनिधान, रचयित्री-प्रोज्ञानमती माता जी, प्रका..-दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, इम्तिनापुर
(मेरट उ.प्र.), द्वि. संस्करण, पृ. 122 १. तथैव, पृ. 137 3. तथैव, पृ. 1.2
हिन्दी जैन पूजा-काव्यों में छन्द, रस, अलंकार :. 215