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जयमाला का पद्य
भगवन् तुम्हारी अर्चना जब कर्मपर्वत चूरती फिर क्यों अनेकों विघ्न-संकट, को न पल में चूरती। पूजा तुम्हारी है प्रभो! जब मुक्ति लक्ष्मी दे सके,
फिर क्यों न भक्तों को तुरत, धनधान्य लक्ष्मी दे सके।' इस काव्य में गीता छन्द तथा रूपक अलंकार से शान्तरस की धारा प्रवाहित होती हैं और फल की सम्भावना व्यक्त होती है।
त्रिलोकमण्डलविधान (तीन लोक पूजा)
जैन पूजा-काव्य में त्रिलोकमण्डलविधान का स्थान सर्वाधिक है। यह समस्त विधानों का विधान कहा जाता है। इसकी रचना कविवर श्री टेकचन्द्र जी ने, द्वितीय आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी तिथि, वि.सं. 1828 में, भगवत्-भक्ति से तन्मय होकर समाप्त की है। इसमें तीन लोक के अकृत्रिम (स्वाभाविक अगणित जिन चैत्यालयों (मन्दिरों) की पूजा का वर्णन है। इस पूजा के अध्ययन से वा करने से जैन सिद्धान्त में वर्णित तीन लोक के स्वरूप का अच्छी तरह ज्ञान हो जाता है। भावपूर्वक इस विधान का करने से स्वर्ग की एवं परम्परा पोक्षपद की प्राप्ति होती है।
इस तीन लोक पूजा-विधान की दो प्रकार की प्रतियाँ उपलब्ध हैं। एक कविवर टेकचन्द्र जी कृत और दूसरी प्रति जो इससे द्विगुणी बड़ी हैं वह कविवर नमिचन्द्र जी कृत है। समाज में इस प्रस्तुत प्रति का प्रचलन बहुत है, अनेक स्थानों पर समाज की ओर से यह विधान समारोह के साथ किया जाता है, समाज के सभी वर्गों में अहिंसा, परोपकार, शाकाहार और सदाचार की प्रभावना होती है। इस विधान में कुल 555 पृष्ठ हैं, सैकड़ों छन्दों में निबद्ध हजारों हिन्दी सरस काव्य हैं जिनके पढ़ने से ही मन में शान्तरस का उद्भव होता है। कविवर टेकचन्द्र जी ने स्व-परकल्याण के लिए इस ग्रन्थ की रचना कर अपनी भगवद्भक्ति को मूर्तिमान बना दिया हैं। इस पूजा महाकाव्य के पठन से यह सिद्ध होता है कि परमात्मा की कृत्रिम अथवा अकृत्रिम प्रतिमा की पूजन से पुण्यालाभ तथा हिंसा आदि पापों का क्षय होता है।
दूरवी चा परोक्ष जिनमन्दिरों की भक्ति के विषय में कविवर टेकचन्द्र जी एक काव्य के द्वारा सफलता दर्शाते हैं
शक्तिहीन हम दूर जाय सकते नहीं भक्ति परे चितलाय यजं इस ही मही।
1. इन्द्रध्वजविधान, रचायची-श्रीज्ञानमती पाता जी, प्रका. -दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर
(मेरठ उ.प्र.), द्वि. संस्तारण. पृ. 145
215. जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन