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हिन्दी ऋषिमण्डलस्तोत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण पद्य
करी कालिमा दूर आकांक्षा चूरी, संशय रहा न लेश सब आशा पूरी। ईश्वर ब्रह्मा बुद्ध ज्योतिरूप कड़े, शाश्वत सिद्धस्वरूप सब में देव बड़े॥ लोकालोक प्रकाश करते नौहि थके, ऐसे श्री 'ही' देव मैंने मन में धरे। एकवर्ण दोवर्ण तीनवर्ण धारी, घार पाँच हैं वर्ण सबके अधिकारी। ऋषभादिक चौबीस तीर्थंकर सब ही, ध्याओं उनको नित्य बोगत्रय से सही। अर्थचन्द्र आकार ही का नाद कहा, उसका वर्ण है श्वेत जैसे चन्द्र महा। श्रीऋषिमण्डल मध्य हौं' का परिकर है, उससे रक्षित देह मेरी सुखकर हैं। तब नहि नागिनि जाति मेरा निष्ट करे, सेवक होकर वेग मेरे पायन परे।। सर्वऋद्धि के ईश आर्हतगणधर हैं, उनके तेज से लोक सब ही व्याप्त है। उनका ध्यान किये परम सौख्य होगा, विलय जाएँगे दुःख मेरे अतिवेगा।'
उपरिकथित पद्यों में 'ही' पन्त्र का महत्त्व अनेक अलंकारां से अलंकृत किया गया है।
आचामल तप आदि कर, जिन पूजे धर नेह । सुमिरै आठ हज़ार जो, कार्य सिद्धि उस गेह।। प्रात समय इस मन्त्र को, आठ एक सौ बार।
जपें सो नर हो सुखी, रोग कर नहि वार॥' उक्त पद्यों में ऋषिमण्डल मन्त्र 'ह्रीं' और उसके यन्त्र की पूजा का पहत्त्व, सफलता कही गयी है।
ऋषिमण्डल पूजा की स्थापना के पद्य प्रधानबीजाक्षर ही की पूजा
ऋषिगण का आराध्य बीजाक्षर ही है ज्ञापक ऋषभादि तीर्थकर चौबीस हैं। पिण्डबर्ण संयुक्त हभमरादिक आठ हैं वर्ण मातृका सहित दहन विधि काठ हैं।। अष्टऋद्धिसंयुक्त विराजे ऋषि यहाँ यों हो पूजन पंच परमगुरु का यहाँ।
1. श्री ऋषिपण्डलकप. पृ. 11-11 2. तथैव, पृ. 15
हिन्दो जैन पूजा-माव्यों में छन्द, रस, अलंकार :: 219