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चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगल,
साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं अर्थात्-लोक में चार मंगल स्वरूप हैं एवं मंगलकारी हैं-(1) अरहन्तभगवान् मंगल हैं, (2) सिद्धपरमात्मा मंगल हैं, (3) आचार्य, उपाध्याय, मुनि-ये तीन प्रकार के साधु मंगल हैं और (4) केवलज्ञानी द्वारा कहा गया धर्म मंगल (कल्याणकारी) है।
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य प्राकृतसाहित्य, सिद्धान्त और गणित के अधिकारी विद्वान ऋषि थे। उन्होंने स्वरचित गोम्मटसार शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलकाव्य का दर्शन इस प्रकार कराया है
सिद्ध शुद्धं पणमिय, जिणिंदवरणेभिचन्द्रपकलंक ।
गुणरयणभूसणुदय, जीवस्स परूवणं वोच्छं। तात्पर्य-जो द्रव्य कर्म के अभाव से शुद्ध, भावकर्म के नाश से निष्कलंक, अर्हन्तदेवों से भी श्रेष्ट, केवलज्ञानरूपी चन्द्र से शोभित और सम्यक् दर्शन आदि गुणरूपी रत्नों के आभूषणों से शोभित हैं। इस प्रकार के सिद्धपरमात्मा को नमस्कार कर, जीवजाति का निरूपण करने वाले जीयकाण्ड (गोम्मटसार) ग्रन्थ को मैं नेमिचन्द्र रचता हूँ।
इस प्राकृतमंगलकाव्य के नव अर्थ निकलते हैं अर्थात् नवदेवों को नमस्कार किया गया है-(1) चौबीसतीर्थंकर, (2) भगवान महावीर, (8) सिद्धपरमेष्ठी, (4) आत्मा, (5) सिद्धचक्र, (6) पंचपरमेष्ठी, (1) नेमिनाथभगवान्, (8) गो. जीवकाण्डशास्त्र, (9) नेमिचन्द्र आचार्य ।
इस काव्य में आर्याछन्द एवं श्लेष-रूपक अलंकार शोभित है।
श्रीकुन्दकुन्द आचार्य ने स्वरचितभक्तिपाठ में पंगलकाव्य के द्वारा अनेक महापुरुषों को नमस्कार किया है, इस विषय के कुछ उदाहरण
चवीसं तित्थयरे, उसहाइवीरपच्छिमे बन्दे ।
सव्येसिं सगणहरे, सिद्धे सिरसा णमस्सामि|| हम श्रीऋषभनाघ से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों को, गौतम आदि चौरासी गणधरों को, आचार्य-उपाध्याय-साधुओं को और परमात्मा सिद्धों को प्रणाम करते हैं।
चंदेहिणिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहिय पयासंता।
साबरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। जो चन्द्र से भी अधिक निर्मल हैं, सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान हैं, समुद्र के समान गम्भीर हैं तथा श्रेष्ठ सिद्ध पद को प्राप्त हुए हैं ऐसे ऋषभनाथ से लेकर
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 129