________________
नमः श्रीवर्धमानाय, निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां, यविद्या दर्पणायते॥ महाकवि धीरनन्दी के चन्द्रप्रभ महाकाव्य का मंगलकाव्य
जराजरत्यास्मरणीयमीश्वरं, स्वयंवरीभूतमनश्वरश्रियः |
निरामयं वीतभयं भवच्छिदं, नमामि वीरं नृसुरासुरैः स्तुतम्।। श्रीमाधनन्दी आचार्य का मंगलकाव्य--
चतुर्विंशतितीर्थेशान्, चतुर्गतिनिवृत्तये।
वृषभादिमहावीरपर्यन्तान् प्रणमाम्यहम्।। नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति-इन चार गतियों को परम्परा को नष्ट करने के लिए श्रीऋषभदेव से श्रीमहावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर महापुरुषों को हम माधनन्टी प्रणाम करते हैं।
दिव्यं वचो यस्य सभा समा सभा, निपीय पीयूषमितं मितं मितम् ।
बभूव तुष्टाससुरासुरा सुरा, वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम्॥ तात्पर्य मैं उन विश्वकल्याणकारी, ज्ञानवद्ध, परमपदनिष्ठ, महावीर स्वामी की निश्चय से स्तुति करता हूँ जिनके अमृततुल्य वचनों को सुनकर, आदरसहित जागृतिपूर्ण सुर असुर मानन तिर्यंचप्राणियों से शोभित अत्यन्त मनोहर प्राणरक्षक दबावन्त सभास्थली (समवशरण) सन्तुष्ट हो गयी। यहाँ पर शान्तरस का आस्वादन होता है।
श्री अमरकीर्ति भट्टारक विरचित उक्त पंगलकाव्य इन्द्रवंशा (1-2) वंशस्थ (3-4 पाद में) तथा यमकालंकार-उपमालंकार से शोभित है।
श्रीशुमचन्द्र आचार्य ने स्वरचित ज्ञानार्णव शास्त्र के प्रारम्भ में यह मंगलकाव्य कहकर भगवान महावीर स्वामी का स्मरण किया है
वर्धमानो महावीरो वीरः सन्मतिनामभाक् ।
स पातु भगवान् विश्वं येन बाल्ये जितस्मरः।। व्याख्या-जिन्होंने बाल्यकाल में कामदेव को जीत लिया है, वे श्रीवीर, अतिवीर, महावीर, सन्मति नामों से विख्यात वर्धमान भगवान् सर्वजगत का संरक्षण करें। इस काव्य में अनुष्टुप् छन्द एवं भगवान महावीर के विशेषणों को व्यक्त करनेवाला परिकर अलंकार है।
इस प्रकार जैन साहित्य में सैकड़ों (सहस्रों) संस्कृत मंगलकाव्य विधमान हैं परन्तु विस्तार के भय से उनका उल्लेख नहीं किया जा रहा है।
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 127