________________
पन्द्रह श्लोक हैं, अन्त में प्राकृतबद्ध एक विनयमय है। इसमें आदि के आठ श्लोक शान्तिनाथ तीर्थंकर के गुणों का कीर्तन करते हैं। पश्चात् सात श्लोक भक्तिपूर्वक विश्वशान्ति की कामना व्यक्त करते हैं
अपनी किरण रूप परिवार से परिपूर्ण तथा शोभा से सम्पन्न सूर्य, निज परपदार्थों को प्रकाशित करता हुआ जब तक उदित नहीं होता, तब तक कमलों का वन इस लोक में निद्रा के भार से होनेवाले परिश्रम को धारण करता है अर्थात् मुद्रित रहता है सूर्य के दमित होते . त है। उसी प्रकार है भगवन् ! जब तक आपके दोनों चरण कमलों की प्रसन्नता का उदय नहीं होता, तब तक यह प्राणियों का समूह प्रायः महापापों को धारण करता रहता है अर्थात् आपके चरणकमलों को प्रसन्नता होने पर ही वह समस्त पाप स्वयं ध्वस्त हो जाता है। संस्कृत काव्य इस प्रकार है
यावन्नोदयते प्रभापरिकरः श्रीभास्करो भासयन् सावद् धारयतीह पंकजवनं निद्रातिमारश्रमम् । यावत् त्वच्चरणद्वयस्य भगवन स्यात्प्रसादोदयः
तावज्जीवनिकाय एष वहति प्रायेण पापं महत्॥' इस भक्तिकाव्य में शार्दूलविक्रीडित छन्द तथा स्वभावोक्ति, रूपक एवं अलंकारों के द्वारा शान्तरस सरोवर भरा हुआ है।
समाधिभक्तिकाव्य-इस भक्तिकाव्य में विभिन्न छन्दोबद्ध अठारह श्लोक हैं, अन्त में प्राकृतभाषा में एक विनयगद्यकाव्य है। क्रमांक 9-1 प्राकृत में आर्याछन्दबद्ध दो गथाएँ हैं। इस भक्तिपाठ में निर्मलज्ञान, देवपूजन, इष्ट प्रार्थना, श्रद्धान और ध्यान का अलंकार भरा हुआ सुन्दरवर्णन आनन्द प्रदान करता है। उदाहरणार्थ एक काव्य का अवलोकन कीजिए
आबाल्याद जिनदेवदेव भवतः श्रीपादयोः सेवया सेवासक्तविनेयकलपलतया कालोद्ययावद्गतः। त्वां तस्याः फलमर्थये तदधुना प्राणप्रयाणक्षणे
त्वन्नामप्रतिबद्धवर्णपठने कण्टोस्त्वकुण्ठो ममा निर्वाणमक्तिकाव्य-इस भक्तिकाव्य में कुल छत्तीस श्लोक विभिन्न छन्दों में रचित हैं, अन्त में प्राकृतभाषा में निबद्ध रमणीय विनयगद्यकाव्य है। इस भक्तिकाव्य में चौवीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर के पंचकल्याणकों (गर्भ-जन्म-दीक्षा-ज्ञान-मोक्ष) का वर्णन कर उनको नमस्कार किया गया है। इसके पश्चात् ऋषभदेव से लेकर श्री
1. धर्पध्यान प्रकाश, पृ. TH ५. धर्मध्यानप्रकाश, पृ. 11
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: ५५