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हिन्दी में अर्थ-ओं = पंचपरमेष्ठीदेव, हीं = चौबीसतीर्थकर देवों का स्मरण कर, अनन्तज्ञानादि अष्ट विशेषगणों से सम्पन्न, सिद्धचक्र के अधिपति, सिद्धपरमेष्ठीदेव के लिए मैं जन्म जरा-मरण के नाश के हेतु जल अर्पण करता हूँ। नैवेद्यद्रव्य अर्पण करने का पंचम पद्य :
अकृतबोधसुदिव्यनैवेद्यकैः, विहितजातिजरामरणान्तकैः । निरवधिप्रचुरात्मगुणालयं, सहजसिद्धमह परिपूजये ॥ फलद्रव्यकापद् परमभावफलावलिसम्पदा, सहजभावकुभावविशोधया।
निजगुणास्फुरणात्मनिरंजन, सहज सिद्धमहं परिपूजये ॥ संस्कृत मन्त्र-ओं ह्रीं सिद्धयकाधिपतये सिद्धपरमेष्टिने मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्यपामीति स्वाहा। अर्घ्यद्रव्य समर्पण करने का नवम पथ
नेत्रोन्मीलिविकासभावनिवहैरत्यन्तवोधाय वै दार्गन्याशाल दागधार माहीमधूः मनीः। यश्चिन्तामणि शुद्धभावपरमज्ञानात्मकै रच येत्
सिद्ध स्वादुमगाधबोधमचलं सम्प्रार्चयामो वयम् ॥ इस शलोक में उपमा रूपक और स्वभावोक्ति अलंकारों की संसृष्टि में शान्तरस अच्छी तरह झलकता है जो आत्मानन्दस्वरूप है। इस श्लोक के अन्त में भगवत्पूजा का फल भी दर्शाया गया है । विदेहक्षेत्र के विद्यमान बीस तीर्थंकरों की अर्चा-स्थापना
श्रीमजम्बूधातकीपुष्करार्थद्वीपेषूच्चैर्ये विदेहाः शराः स्युः।
वेदा वेदा विद्यमाना जिनेन्द्राः प्रत्येक तांस्तेषु नित्यं यजामि || इस पूजा में संस्कृत के दशछन्द हैं उनमें प्रथम पद्य का छन्द शालिनी है और शेष नौपद्य द्रुतविलम्बित छन्द में रचित हैं। अन्त में प्राकृतभाषा में जयमाला के छह छन्द हैं जो भक्तिरस से सरस एवं मनोहर हैं। उदाहरणार्थ जल अर्पण करने का संस्कृत छन्द :
सुरनदीजलनिर्मलधारया, प्रवरकुमचन्द्रसुसारया।
सकलमंगलवांछितदायकान्, परमविंशतितीर्थपतीन् यजे ॥ जल अर्पण करने का मन्त्र
ओं ही (1) सीमन्धर, (2) जुगपन्धर, (3) बाहु, (4) सुबाहु, (5) संजातक, (6) स्वयंप्रभ, (7) ऋषभानन, (8) अनन्तवीर्य, (५) सूरप्रभ, (10) विशालकीर्तेि,
1. ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ. BAI
संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-काव्यों में छन्द... :: 17]