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घनमोह महातम विश्वभरं, वसुनाशन भानुप्रकाशकरं। निरलोक उद्योतक दीपलस, प्रणमामि सदा जिनसूत्रमहम् ॥ इति जिनमतसूत्रे तत्त्वतत्त्वार्थ सारै : विविधवरणपुष्पैः गृद्धपिच्छोपलक्ष्यम् । प्रकटितदशभाग श्रीउमास्वामि सूरि
विरचितजयमाला लालचन्द्रो विनोदी ॥
ओं ही तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशाध्यायेभ्यः जयमालार्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥
अनुपमसुखदाता भव्यजीवेनसाता, कुगतिकुमतिभानी जैनवाणी विख्याता। सुरनरमुनिजेता ध्यान ध्यायन्तितेता, सजयति जिनसूत्रं मोक्षमार्गस्यभानुः ॥
इति आशीर्वाद पुष्पांजलिः । इस तत्त्वार्थसूत्र (मोक्षशास्त्र) की पूजन में इक्यावन पद्य हैं। पद्यों में सूत्रों की संख्या तथा वर्णनीय विषय अध्यायों के कम से दिये गये हैं। पूजा के पद्यों में तथा जयमाला के पर्यों में रूपक, उपमा आदि अलंकारों के प्रयोग से शान्तरस का आस्वादन होता है। यह देव का नहीं किन्तु उनकी वाणी (शास्त्र) का पूजन है। जैनग्रन्थों में देव-शास्त्र-गुरु के पूजन का विशेष महत्त्व है।
लघुजिनसहस्रनाम पूजा
ई. 8वीं शती में आचार्य जिनसेन ने जिन सहस्त्रनामस्तोत्र की रचना की है। इसमें 171 पद्यों में कथित एक सहस्र आठ शुभनामों के द्वारा वीतराग परमात्मा की स्तुति की गयी है। इसमें बारह अध्याय शोभित हैं। इस स्तोत्र की महत्ता को देखकर आचायों ने जिनसहस्रनामपूजा, जिनसहस्रनामव्रत और सहस्त्रनामन्नतोद्यापन- इन तीन रचनाओं का आविष्कार किया है। जिस सहस्रनामपुजा श्री धर्मभूषण द्वारा ई. 15वीं शती में रची गयी है। इस अट्ठाईस पद्यों से विभूषित पूजा में विविध छन्द एवं अलंकारों के द्वारा शान्त रस परिपुष्ट किया गया हैं। इस पूजा के अन्त में प्राकृतभाषा की जयमाला है। इस पूजा में प्रत्येक नामशतकों के लिए अर्धसमर्पण किया गया है। पूजा की रूपरेखा इस प्रकार है :
स्थापना (अनुष्टुप् छन्द)
स्वयंभुवे नमस्तुभ्यपुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनैव तथोद्भूतवृत्तये चिन्त्यवृत्तये ॥'
1. श्री दि. जैन पूजनसंग्रहः सं. राजकुमार शास्त्री : पृ. H7-44 |
संस्कृत और प्राकृत जैन गूजा-काव्यों में छन्द... :: 187