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धारण करना), (2) विनय सम्पन्नता (मोक्षमार्ग के साधन दर्शन. ज्ञान, चारित्र में तथा देव आगम गुरु में विनय धारण करना), (3) शीलवतानतिचार ( अहिंसा सत्य आदि बारह व्रतों का निर्दोष पालन करना), (4) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (समीचीन ज्ञान की प्राप्ति के लिए निरन्तर अभ्यास करना), (5) संवेग (अन्याय-पाप-व्यसनों तथा दुःखों से अपने को सुरक्षित रखना), (6) शक्ति के अनुसार आहार ज्ञान एवं अभयदान करना) शक्तितस्त्याग, (5) शक्तितःतप (आत्म-कल्याण के लिए शक्तिपूर्वक कष्ट सहन करना, अथवा अनशन आदि बारह तपों का आचरण करना), (8) साधु समाधि (संयम तथा व्रत की साधना में लीन साधुजनों के उपसर्ग-कष्ट-विघ्नों को दूर करना), (9) Qवावृत्यकरण (गुणी-वती धर्मात्माओं की सेवा करना, दुःख को दूर करने का प्रयास करना), (10) अहेभक्ति (अर्हन्तभगवान में शुद्धभाव से भक्ति करना), (11) आचार्यभक्ति (आचार्य में भावपूर्वक भक्ति करना), (12) बहुश्रुतभक्ति (उपाध्याय परमेष्ठी में भक्ति करना), (13) प्रवचन भक्ति (अहंन्तभगवान की वाणी या आगम में भक्ति करना), (14) आवश्यकापरिहाणि (समता वन्दना स्तुति प्रतिक्रमण स्वाध्याय कायोत्सर्ग-इन छह कर्तव्यों का यथा-समय दृढ़पालन करना), (15) मार्गप्रभावना (अहिंसा ज्ञान आदि सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करना), (i) प्रवचनवत्सलत्य (गोवत्स के समान देशबन्धु-धर्मबन्धु में स्नेह करना) : इन सोलह 'भाधनाशों के चिन्तन से भव्य आत्मा पूज्यतीथंकर पद को प्राप्त करता है।
इन भावनाओं का इतना अधिक महत्त्व है कि आत्म-कल्याण के इच्छुक मानव एवं महिलाएं सोलह भावनाव्रत का पालन विधिपूर्वक करती है। आचार्यों ने इसकी विधि चारित्रशास्त्रों में लिखी है। यह व्रत प्रतिवर्ष सम्पूर्ण भाद्रपदभास में पालन करते हुए सोलह वर्ष तक करना होता है, सोलह वर्ष के पश्चात् इसका उद्यापन (उत्सवपूर्वक समाप्ति) किया जाता है। इस व्रत के पालनसमय प्रतिदिन सोलह कारण पूजा करने का नियम है और उद्यापन के समय में भी उधापन पूजा का नियम है।
सोलह कारण पूजा की रचना भट्टारक ज्ञानभूषण के शिष्य श्री जयभूषण के द्वारा संस्कृत में की गयी है और षोडशकारण व्रतोद्यापन की पूजा केशराचार्य तथा सुमतिसागर द्वारा की गयी है।
षोडशकारण पूजा की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है :
इन्द्रवज्रा छन्द :
ऐन्द्रं पदं प्राप्य परं प्रमोद, धन्यात्मतामात्मनि मन्यमानः । दृकशद्धिमख्यानि जिनेन्द्रलक्ष्म्याः, महाम्यहं षोडशकारणानि ।
1. ज्ञानपाट पूजांजलि : पृ. 145-1
!!!) : जन पूजा-काव्य : एक चिन्तन