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(11) वजधर, (12) चन्द्रानन, (13) भद्रबाहु, (14) भुजंगम, (15) ईश्वर, (16) नेमिप्रभ, (17) वीरसेन, (18) महाभद्र, (19) देवयश, (20) अजितवीर्य-इति विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
इस विशालमन्त्र में, विदेह क्षेत्र के विद्यमान बीस तीर्थंकरों के लिए, जन्म-जरा (वृद्धावस्था) मरणरूप रोगों का नाश करने के ध्येय से जल अर्पण किये जाने का निर्देश है। अH (आउ द्रध्यो का समूह) अपण करने का पद्य :
जल सुगन्धप्रसूनसुतन्दुलेश्वरुप्रदीपक धूप फलादिभिः ।
सकलमंगलवांछितदायकान्, परमविंशतितीर्थपतीन्यजे ॥ सारांश-(1) जल, (2) सुगन्ध, (3) अक्षत, (4) पुष्प, (5) नैवेद्य, (6) दीप, (7) धूप, (8) फल-इन आठ द्रव्यों के समूह रूप अर्घ्य के द्वारा, सम्पूर्ण मंगल और इच्छित पदार्थों के दाता श्रेष्ठ बीस तीर्थंकरों का हम पूजन करते हैं। अतिश्रेष्ठपद की प्राप्ति के लिए। जयमाला का अन्तिम प्राकृतपद्य और उसका तात्पर्य :
ए वीस जिणेसर, णमिय सुरेसर, विहरमाण मइ संथुणियं ।
जे भणहि भणावहिं, अरुमन भावहि, ते णर पावहिं परमपयं ।' इस प्रकार देव और मानव आदि से नमस्कृत, इन नित्य विहार करनेवाले बीस तीर्थकरों की मैंने स्तुति की है। इस जयमाला को जो मानव पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं अथवा मन में स्मरण करते हैं वे भक्त मनुष्य परमपद मुक्ति पद को प्राप्त करते हैं।
इस पद्य का पत्ता छन्द कहा जाता है, इसमें भक्तिरस की धारा और पूजा का फल दर्शाया गया है। श्रीबाहुबलिस्वामिपूजा
इस पूजा में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव के पुत्र श्री बाहुबलि स्वामी के गुणों का अर्चन किया गया है, इसके रचयिता का नाम अज्ञात है। इस पूजा में कुल सत्रह पद्य हैं, जिनमें प्रथम पद्य स्थापना का है, यह इन्द्रवज्रा छन्द में रचित है, पद्य इस प्रकार है:
श्रीपोदनेशं पुरुदेवसून, तुंगात्मकं तुंगगुणाभिरामम् ।
देवेन्द्रनागेन्द्र नरेन्द्रवन्ध, श्रीदोर्बलीशं महयामि भक्त्या ॥" सारांश -पोदनपुर के अधिपति, ऋषभदेव के सुपुत्र, उच्चशरीरधारी, श्रेष्ठगुणों
1. ज्ञानपीठ पूजांजलि. पृ. 6:3|| 2. श्री बाहुबलिपूजा एवं वाहुशलि स्तुति -लेखक सुरेन्द्रनाथ श्रीपाल जैन गांतीकाला, जुबिलीबाग,
तारदेव बम्बई. प्र. सं.. पृ. 14 से 17 तक।
172 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन