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इस काव्य में यमक, अनुप्रास, रूपक अलंकारों से शान्तरस ध्वनित होता है स्तुति का द्वितीय पथ चमत्कारपूर्ण इस प्रकार है :
दीर्घाजवंजयविवर्तननर्तनरात्रिप्रकर्तनविकर्तन कीर्तनश्रीः ।
उन्निद्र सान्द्र तरभद्र समुद्र चन्द्र ! सद्यः पुरुर्दिशतु शाश्वतमंगलं वः ॥
पूजन प्रकरण में जल अर्पण करने का विचित्र पद्य -
अनच्छाच्छताकारिसंगच्छदच्छसरूपैस्तुभूपैरिवानन्द कूपैः । अजीवैः जगज्जीवजीवैरिवोच्चैः यजे आदिनाथं समाध्याम्बुकन्दम् ॥
काव्य सौन्दर्य-मलिनता को स्वच्छ करने में निर्मल स्वरूप को प्राप्त करनेवाले, उत्तम राजाओं के समान, जगत के प्राणियों का जीवनरूप, श्रेष्ठ अचित्त ( जीव-जन्तु रहित), आनन्दप्रद कूपजल के द्वारा हम, समाधि के समुद्र श्री ऋषभदेव भगवान का पूजन करते हैं। राज के एस में द्वितीय---
अपने दोषों को दूर करने में निर्मल गुणों को प्राप्त करनेवाले, विश्व के प्राणियों के जीवन की सुरक्षा करनेवाले, आनन्दप्रद जलकूपों के समान, अहिंसक राजाओं के द्वारा भगवान ऋषभदेव का पूजन किया जाता है।
इस काव्य के दो अर्थ व्यक्त होते हैं प्रथम कूपजल का और द्वितीय अर्थ नृपपक्ष का भाव यह है कि ऋषभदेव की इतनी अधिक पूज्यता होती थी कि राजा मण्डल भी जिन की पूजा करता था। इस काव्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, परिकर, श्लेष अलंकारों की संसृष्टि से शब्द एवं अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। इस रचना से शान्त रस की वृद्धि होती है।
इस पूजा के अन्त में जयमाला का प्रथम पथ
'अखण्डप्रचण्डप्रतापस्वभावं,
निराकारमुच्चैरनन्तस्वभावम् । स्वभावानुभावं श्रतोद्यविभाव, स्वभावाय वन्दे वरं आदिनाथम् ॥
इस पद्य में अनुप्रास एवं परिकर अलंकार की शोभा से शान्तरस का आस्वादन होता है, शब्दविन्यास अपूर्व है ।
इसी जयमाला का तृतीय पद्य इस प्रकार है :
विकार्य विमायं सदा निष्कषायं ज्वलद् रागदोषादिदोपव्यपायम् । अलोकं च लोकं समालोकयन्तं भजे आदिनाथं समुद्योतयन्तम् ॥
इत काव्य में अनुप्रास एवं स्वभावोक्ति इन अलंकारों की छटा से श्री • आदिनाथ के विषय में अपार भक्तिरस झलकता है। शब्दों का विन्यास चित्त को
तरकृत और प्राकृत जैन पूजा काव्यों में छन्द... 181