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मन्त्र-(1) ओं ही अहं असिआउसा मंगलोत्तमशरणभूताः अत्र अवतरत
अवतरत संघौषट्-इति आध्वानं। (2) अत्र तिष्टा तिन ठ: :: शनि चान .
(3) अत्र मम सन्निहिताः भवत भवत वषट्-सन्निधिकरणम् ॥ चन्दन अर्पण करने का पद्य
काश्मीरकर्पूरकृतद्रवेण, संसारतापापहृतौ युतेन।
अर्हत्पदाभाषितमंगलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ मन्त्र-ओं ह्रीं अर्ह असिआउसामंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्धपामीति स्वाहा ॥ जाचार्यपरमेष्ठी के गुणों का अर्चन :
स्वाचारपंचकमपि स्वयमाचरन्ति हयाचारयन्ति भविकान् निजशुद्धिभाजः । तानर्चयामि विविधः सलिलादिभिश्च
प्रत्यूहनाशनविधौ निपुणान् पवित्रैः ॥ पन्न-ओं ही पंचाचारपरावणाच आचार्यपरमेष्टिने अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । धर्मशरण के लिए अर्घ्य अर्पण करने का पध
धर्म एव सदा बन्धुः स एव शरणं मम ।
इह वान्यत्र संसारे, इति तं पूजयेऽधुना ॥ मन्त्र-ओं ह्रीं धर्मशरणाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
सारांश-इस प्राणी का सदा धर्म ही भाई या मित्र है, धर्म ही हम सबका शरण रक्षक है। इस कारण इस लोक और परलोक में हम उसकी पूजा करते हैं, इसमें धर्म का महत्त्व दर्शाया गया है अतएव धर्म को देव मानकर उसकी पूजा की जाती है । अन्तिम आशीर्वाद प्रदर्शक पद्य :
श्रियं बुद्धिमनाकुल्यं, धर्मप्रीतिविवधनम् । जिनधर्मस्थितिभूयात, श्रेयो में दिशतु त्वरा ॥
इति आशीवांद पुष्पांजलिः ॥ भावार्थ-हे भगवन्! मेरी सदा जिन धर्म में स्थिति (मर्यादा) बनी रह और हमारे लिए शीघ्र ही, अन्तरंगलक्ष्मी (ज्ञानादि) तथा बहिरंगलक्ष्मी (सम्पनि आटिः को, वृद्धि हो, जीवन कं ज्ञानन्द का, अतिशय धार्मिक श्रद्धान को और कल्याण का प्रदान करें ॥
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178 :: जैन पूजा-काध्य . एक चिन्तन