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जन्माभिषेक का स्मरण करते हुए होता है। चतुर्थ प्रतिमाभिषेक के समर्थन में संस्कृत अभिषेक पाठ का एक श्लोक प्रमाणित किया जाता है :
वं पाण्डुकामलशिलागतमादिदेवमस्नापयन्सुरवराः सुरशैलमूर्ध्नि । कल्याणमीप्सुरहमवततोयपुष्पैः सम्भावयामि पुर एव तदीयविम्वम् || '
ईस्वी बारहवीं शती के अन्त में आचार्य माघनन्दी कृत संस्कृत अभिषेक पाठ में भी प्रतिमाभिषेक का गुणस्मरण के साथ समर्थन किया गया है। इसमें कुल 21 श्लोक हैं। इस विषय के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं :
श्रीमन्नतामरशिरस्तटरलदीप्तितो यावभासिचरणाम्बुजयुग्यमीशम् | अर्हन्तमुन्नतपदप्रदमाभिनम्य त्वन्मूर्तिषूद्यदभिषेकविधिं करिष्ये ॥' याः कृत्रिमास्तदितराः प्रतिमाः जिनस्य, संस्नापयन्ति पुरुहूतमुखादयस्ताः । सद्भावलब्धिसमयादिनिमित्तयोगात्तत्रैवमुज्ज्वलधिया कुसुमं क्षिपामि ॥ प्राचीनकाल में इन्द्रों और देवों ने उन अरिहन्त भगवान् की साक्षात् प्रतिमा तथा कृत्रिम ( रचित = बनायी गयी प्रतिमाओं का अभिषेक किया है। शुद्ध भावों की प्राप्ति के लिए शुभ समय का निमित्त प्राप्तकर उन अरिहन्तदेव की प्रतिमा के विषय में ही निर्मलबुद्धि से हम इस प्रकार पुष्पांजलि अर्पित करते हैं ।
अभिषेक का प्रयोजन
हे जिनेन्द्रदेव ! कर्मबन्धरूप बेड़ियों से हीन, न्याय नीति के लिए तत्त्व (सिद्धान्त) के प्रणेता श्रेष्ठ ऋषभदेव को शुद्धस्वरूप जानकर भी, हम अपने पापकर्म समूह को समूल नष्ट करने के लिए शुद्ध जल के द्वारा आपका अभिषेक करते हैं। यह उक्त अभिषेक पाठ के 11वें श्लोक का तात्पर्य है । इसके आगे कहा गया है कि पूर्वकाल में जिन अरहन्त भगवान् का देवेन्द्रों ने अभिषेक किया था उनका हम भक्तिपूर्वक अभिषेक करते हैं। जिस अभिषेक के जल की एक बिन्दु भी मुक्तिरूप लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए निमित्त कारण होती है, यह मुक्तिप्राप्ति ही अभिषेक ( पूजन के अंग ) का चरम प्रयोजन है। जिनका अभिषेक किया गया है वे अर्हन्त भगवान लोक में सतत शान्ति करनेवाले हों ।
अभिषेक के पश्चात् सिहासन पर विराजमान कर अहंन्त परमात्मा का हम अष्ट द्रव्यों से, जन्म-जरा-मरण के दुःखों को विनष्ट करने के लिए पूजन करते हैं। हे भगवन्! आपके गन्धोदक के स्पर्श से हमारे दुष्कर्मों का समूह दूर हो और
1. जिनेन्द्रपूजनमणिमाला, प्र. मिश्रीसाल दयाचन्द्र जैन करैरा (शिवपुरी म. प्र. ), पृ. 100, प्र. सं. 2. मन्दिरवेदीप्रतिष्ठाकलशारोहणविधि - पृ. 99, श्लोक 1-2, सं. प्रथम, प्र. - श्रीगणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला वाराणसी, सं. पं. पन्नालाल सा. ।
संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा- काव्यों में छन्द... 155