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ज किय विः स एवं सर्वत: पहायपूर्ण है, पूजा कर्तव्य साधुवर्ग और श्रावकवगं दोनों को परम आवश्यक है। यद्यपि साधुसमाज बाह्य आडम्बर तथा विषय कषायों का त्याग करते हुए आत्मशुद्धि की साधना करता है तथापि उसकी चित्तवृत्ति लौकिक विषयों में दुषित न हो और दैनिक चर्या में दोष उत्पन्न न हो इसलिए साधुवर्ग को 'भावपूजा कर्तव्य आवश्यक है। गृहस्थों को इस कारण से पूजा कर्तव्य करना अनिवार्य है कि वे दिन-रात्रि राग, द्वेष, मोह आदि से भरे हुए अपने व्यापार कृषि, निर्माण आदि कार्यों में निरत रहते हैं। उन दोषों को दूर करने के लिए एवं आत्मशुद्धि के लिए गृहस्थों को भी दैनिक देवपूजन, दर्शन, स्वाध्याय, संयम आदि पट्कर्म आवश्यक होते हैं।' उन्धरण :
"जैनशास्त्रों में सेवा-सत्कार को 'वैयावृत्य' कहा जाता है। आचार्य समन्तभद्र (वि. द्वितीय शती) ने पूजा को चैयावृत्त्य कहा है, उन्होंने कहा- "देवाधिदेव जिनेन्द्र के चरणों की परिचया अर्थात सेवा करना ही पूजा है।"
उनकी यह सेवा जल, चन्दन और अक्षत आदि रूप न होकर गुणों के अनुसरण' तथा 'प्रणामांजलि' तक ही सीमित थी। किन्तु छठी शती के विद्वान् यतिवृषभ आचार्य ने पूजा में जल, गन्ध, तन्दुल, उत्तम भक्ष्य, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों को भी शामिल किया है।" ___वसुनन्दि श्रावकाचार में भी अष्ट मंगल द्रव्यों का उल्लेख हुआ है। उन्होंने कहा--आठ प्रकार के मंगल द्रव्य और अनेक प्रकार के पूजा के उपकरण-द्रव्य तथा धूपदहन आदि जिनपूजन के लिए वितरण करें।" ___चौवीस तीर्थंकरों का श्रेष्ठ विनय के साथ पूजन किया जाता है, जिसके माध्यम से पुण्य भाव की प्राप्ति पापकर्म का बहिष्कार किया जाता है। वह विनवकम कहा जाता है। इस वर्णन से यह सिद्ध होता है कि पूजन के जैसे नाम कह गये हैं वैसे ही उनमें गुण एवं क्रिया देखी जाती है।
पूजा के अंग : वर्तमान में दिगम्बर जैन आम्नाय में पूजन-प्रक्रिया के संक्षेप से पाँच अंग या अवयव पाने गये हैं-(1) अभिषेक, (2) स्वस्तिवाचन, {3) पूजाकर्म, (4) शान्तिपाठ, (5) विसर्जनपाट ।
अरिहन्त के गुणों का स्मरण करते हुए शुद्ध जल से साक्षात् तीर्थकर या उनकी मूर्ति को स्नान कराने की क्रिया को 'अभिषेक' कहते हैं। अभिषेक चार प्रकार के होते हैं-1) जन्माभिषेक, (2) राज्याभिषेक, (३) दीक्षाभिषेक, (4) प्रतिमाभिषेक । साक्षात् तीर्थकर के आदि के तीन अभिषेक होते हैं, चतुर्थ अभिषेक उनकी प्रतिष्ठित शुद्ध प्रतिमा का होता है। वर्तमान काल में यह अभिषेक अर्हन्तदेव की प्रतिष्ठित शुद्ध प्रतिमा का ही होता है। परन्तु वह आभिषेक उनके गुण स्मरणपूर्वक प्राचीन
1. डॉ. प्रेमसागर जैन : जैनक्तिकाव्य की पृष्टभूमि, प्र. भारतीय ज्ञानपीठ काशी, 1965, पृ. 24 1
1:54 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन