________________
वंदणमिसेयणच्चन संगोयषलोय मंडवेहि जदा।
कीणणगुणपगिहेहियं विसाल वर पट्ट सालहिं ।' सारांश-जन अकृत्रिम चैत्यालयों में वन्दना, अभिषेक, नृत्य संगीत सर्वदा होते रहते हैं जिनके विशाल मण्डपों में बैठकर देव तथा विद्याधर भक्तिपूर्ण देवदर्शन करते हैं। इन प्रमाणों से अभिषेक विधि सर्वथा सार्थक सिद्ध होती है। वह पूजन के पूर्व अत्यावश्यक है। यह विधि आधुनिक ही नहीं किन्तु अतिप्राचीन एवं अनादि है, यह अभिषेकविधि नकल नहीं, अपितु मौलिक विधि है।
स्वस्तिवाचन (मंगलपाठ)
पूजा प्रक्रिया का दूसरा अंग स्वस्तिवाचन वा मंगलपाठ है। जिस प्रकार विघ्नशान्ति, कार्यसिद्धि आदि के लिए ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया जाता है, उसी प्रकार पूजन के प्रारम्भ में स्वस्तिवाचन या मंगलपाठ एक मंगलाचरण है जो विघ्नशान्ति, इष्टसिद्धि, कृतज्ञता और शिष्टाचार पालन के लिए किया जाता है, गुणों की प्राप्ति तथा मक्ति से शक्ति प्राप्त करना भी इसका प्रमुख प्रयोजन है।
जैनदर्शन में पूजन के प्रारम्भ में मंगलपाठ एवं स्वस्तिवाचन की प्रक्रिया इत प्रकार है :
अभिषेक के बार सम्पूर्ण व्यों को पावों में व्यवस्थित कर लेना चाहिए, पश्चात् मंगल पाठ प्रारम्भ करें :
जय श्री ओं नमः सिद्धेभ्यः, जय श्री ओं नमः सिद्धेभ्यः, जय श्री ओं नमः सिद्धेभ्यः !!! ओं जय जय जय, नमोस्तु! नमोस्तु!!! नमोस्तु!!! णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, पामो आइरियाणं, णमो उपज्झायागं, णमो लोए सब्यसाहूणं। ओं ही अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः, पुष्पांजलि
क्षिपेत्। वह कहकर उच्चपात्र में पुष्प (पीले-चावल) क्षेपण करें।
चत्तारि मंगलं-अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केबलिपण्णतो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंता लोगत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, फेवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहते सरणं पयज्जामि, सिद्धे सरणं पब्बज्जामि, साहू सरणं पयज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्म सर पयज्जामि । ओं नमो अर्हतेस्वाहा, पुष्पांजलि क्षिपामि ||
1. त्रिलोकसार (रतियंकलाकाधिकार) गाथा 100J सं. विशुद्धपतोमाता जी : प्र. टि. जैन ग्रन्थ
संस्थान महावीरजी (राज.) 1975 |
162 :: जैन पूना-काव्य : एक चिन्तन