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उन्नीसवें श्लोक को पढ़कर शेष जलकलशों से प्रतिमा का अभिषेक करें और निम्नलिखित श्लोक पढ़कर अर्घ्य का समर्पण करें। अर्घ्य का श्लोक :
उदकचन्दनतण्डुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलायकः । धवलमंगलगानस्वाक्ले जिनगृहे जिननाथमहं यजे || ओं ही अर्हन्तसिद्धप्रभृतिनवदेवेभ्यः अनर्थ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति
स्वाहा। बीसवें श्लोक को पढ़कर गन्धोदक को मस्तक पर लगाएँ।
उपरिकथित संस्कृत अभिषेक पाठ का दूसरा श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में रचित एवं रूपकालंकार से शोभित है। ग्बारहवाँ श्लोक स्रग्धरावृत्त में रचित परिकर अलंकार से सुन्दर है। बीसवाँ श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा अलंकारों से परिपूर्ण है। शेष सत्रह श्लोक वसन्ततिलका,छन्द में रचित, रूपक, उपमा उप्रेक्षा अलंकारों से अलंकृत हैं। अथ श्री हरजसरायकविकृत हिन्दी जलाभिषेक पाठ की रूपरेखा'
जय जय भगवन्ते सदा, मंगल मूल महान ।
वीतराग सर्वज्ञप्रभु, नौं जोरि जुगपान । यह मंगलाचरण कहकर मंगानपाय थाली में पहनें!
इसके पश्चात् कवि ने अडिल्ल तथा गीताछन्द को मिलाकर एक संयुक्तछन्द में नवकाय्यों की रचना की है। अन्त में एक दोहा की रचना की है इन छन्दों में भक्तिरस की पुट और अलंकारों की छटा है। इस अभिषेक पाठ को भक्तिपूर्वक बोलते हुए प्रतिमा पर जलधारा छोड़ते जाना चाहिए। पश्चात शुद्ध वस्त्र से मार्जन कर प्रतिमा को सिंहासन पर विराजमान करना चाहिए।
इस प्रकार अभिषेक एक प्रयोजनभूत क्रिया, पूर्वाचार्य परम्परा से प्रसिद्ध है। उसको काल्पनिक तथा निष्फल नहीं कहा जा सकता है। सोमप्रभ आचार्य ने सूक्ति मुक्तावली पुस्तक में मानव जन्म रूपी वृक्षा के छह फल कहे हैं। वे इस प्रकार हैं(1) जिनेन्द्रदेव पूजन, (2) गुरु भक्ति, (3) जीवदया, (4) श्रेष्ठपात्रों को दान करना, (5) गणों में अनुराग (श्रद्धा), (6) शास्त्रस्वाध्याय। इनमें अभिषेक आदि के सहित सांगोपांग पूजन को मानव का धार्मिक कर्तव्य कहा गया है।
जैसे मानव को स्नान के बाद देवदर्शन तथा भोजन उपयोगी है उसी प्रकार जिनदेव का अभिषेक के बाद पूजन, शान्ति, विसर्जन करना उपयोगी है, अतः यह एक नैतिक क्रिया भी है।
जिस प्रकार गृह (घर) पर आये हुए अतिथि को, पहले स्नान कराते हैं अथवा हाथ-पैरों का प्रक्षालन कराते है, पश्चात भोजन कराते हैं उसी प्रकार हृदय में आये
1. वृहत् महायोकीर्तन. पृ. 25 से 37 तक।
160 :: जैन पूजा-काव्य : एक बिन्ना