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मात करने के पहले मा+में पूजा काव्य ही नत्रता अवश्य होनी चाहिए। भावपूर्वक द्रव्यपूजा करने में ही सफलता प्राप्त होती है।
पूजाकर्म (संस्कृत)
पूजन प्रक्रिया का तृतीय अंग पूजाकर्म कहा जाता है। यह गृहस्थ के दैनिक षट्कर्तव्यों में प्रथम कर्तव्य है। श्री आचार्य समन्तभद्र ने पूजाकर्म को, श्रावक के बारह व्रतों में से अतिथि संविभाग नामक बारहवें व्रत में प्रदर्शित किया है। इसलिए इसकी विधि अतिथिसंविभाग व्रत के समान है। पूजा के प्रारम्भ में इसी कारण से सबसे प्रथम आहवान, स्थापन, सन्निधिकरण- ये तीन क्रिया की जाती हैं जो धार्मिक एवं नैतिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक हैं।
लोक-व्यवहार में यह देखा जाता है कि जब किसी व्यक्ति के घर पर कोई अतिथि (पाहुना) आता है तब गृहनिवासी व्यक्ति अतिथि महोदय को देखकर आदर के रूप में यह कहता है कि आइए! आइए!! श्रीमन! घर में आ जाने पर वह अतिथि से कहता है-चैठिए! बैठिए श्रीमन् ! जब वह अतिथि घर में बैठ जाता है तब वह अतिथि के पास बैठकर कुशलवृत्त पूछता है, इसके बाद नाश्ता या भोजन कराता है। इस अतिथि-सत्कार की विधि से अतिथि महोदय को प्रसन्नता होती है और गृहस्वामी को भी प्रसन्नता होती है। इस लोक-व्यवहार के समान धार्मिक पूजनक्रिया में भी यही वृत्त देखा जाता है, कारण कि जिनेन्द्र अर्हन्तदेव एक महान् पूज्य श्रेष्ठ अतिथि हैं, उनको जब हम अपने मन-मन्दिर में आमन्त्रित कर सत्कार करते हैं तब इस अतिधि-सत्कार की विधि से ही अर्हन्तदेव की पूजा बन जाती है, वह महान् अतिथि-सत्कार की विधि इस प्रकार है-{1) ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र, अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वान, अर्थात्-हे महाबीर जिनदेव, इस मन-मन्दिर में पधारिए! पधारिए!!, संवौषट् यह अव्यय देवताओं के आमन्त्रण में प्रयुक्त होता है। आह्वान का अर्थ होता है आमन्त्रण या बुलाना। (2) जब भगवान महावीर मन-मन्दिर में आ गये, तब भक्त कहता है-ओं ह्रीं महावीर जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ इति स्थापनं, अर्थात्-हे महावीर जिनेन्द्र! इस मन-मन्दिर में आप बैठ जाइए। इसको ही स्थापना कहते हैं। (3) स्थापना करने के बाद भक्त भगवान् से कहता है-ओं ही श्री महावीर जिनेन्द्रः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! अर्थात् हे पहावीर तीर्थंकरदेव इस मन-मन्दिर में आप हमारे निकर हो जाइए, हो जाइए । वषट् यह अव्यय देवों के सम्मान में प्रयुक्त होता है। इस पूज्य अतिथि-सत्कार की विधि के समय पुण्य (पीले चावल), उक्त तीन बार मन्त्र कहकर उच्च स्थान पर स्थापित किये जाते हैं, यह निराकार स्थापना की विधि है।
किसी योग्य वस्तु में 'यह वही है इस प्रकार मून पदार्थ की कल्पना करने को स्थापना कहते हैं, इसके दो प्रकार हैं-(1) साकार स्थापना, (2) निराकार
संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-कायों में छन्द... :: 155