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की 10 यौँ गाथा भावसौन्दर्य के साथ प्रस्तत की जाती है :
गोहणि जे वीरा सणिया, जे धणह-सेज-वज्जासणिया। जे तवयलेण आवासिजति, जे गिरिगुहकंदरिविवरियति ।
जे सत्तुमित्त समभावचित्त, ते मुणिवर बंदउ दिढचरित्त । सारसौन्दर्य-जो साध सदा गोदोहन आसन, वीरासन, धनुषासन, शय्यासन और वज्रासन से ध्यान लगाते हैं, जो तप के प्रभाव से आकाश में गमन करते हैं और जो पर्वतों की गुफा कन्दराओं में तथा विवरों में निवास करते हैं, जिनका चित्त शत्रु और मित्र में समान रहता है, चारित्र में स्थिर उन मुनिवरों को हम नमस्कार करते हैं। यहाँ पर साधुओं के परमगुणों का वर्णन होने से श्रेष्ठशान्तरस की पुष्टि होती है। अन्त में तेरहवीं प्राकृतगाथा का सारांश है:
__ जो तपश्चरण में शूरवीर हैं, संयपधारण करने में धीर हैं, जो मुक्तिवधू के अनुरागी हैं, रत्नत्रय से शांभित हैं, दुष्कर्मों के विनाशक हैं, उन श्रेष्ठमहर्षियों के स्मरण करने में हम सदा उद्यत हैं। यहाँ पर रूपकालंकार (मुक्तिवधू) की पुट से, वियुक्तशृंगाररस, शान्तरस तथा वीररस का अंग बन गया है। विद्यमानविंशति तीर्थंकर पूजा
इस मध्यलोक के अढ़ाई द्वीप प्रमाण मनुष्यलोक के पाँच विदेह क्षेत्रों में बीस तीर्थंकर सदा विद्यमान रहते हैं। इन तीर्थंकरों की परम्परा अक्षुण्ण रहती है, एक विदेह क्षेत्र में चार तीर्थंकर भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में होते हैं, इस प्रकार पंचविदेह क्षेत्रों के कुल बीस तीर्थंकर अपने-अपने समवसरण (विशाल सभा) में विश्वधर्म का तीर्थप्रवर्तन करते हैं। योस तीर्थंकरों के शुभनाम इस तरह हैं-{1) सीमन्धर, (2) युगमन्धर, () बाह, (4) सुबाहु, (5) संजातक, (6) स्वयंप्रभ, (7) ऋषभानन, (8) अनन्तवीर्य, (9) सूरप्रभ, (10) विशालकीर्ति, (11) वज्रधर, (12) चन्द्रानन, (13) भद्रबाहु, (14) भुजंगम, (15) ईश्वर, (16) नेमिप्रभ, (17) वीर सेन, (18) महाभद्र, (19) देवयश, (20) अजितवीर्च।
इस पूजा में इन उक्त 20 तीर्थकरों का पूजन होता है इसलिए ही इसको 'विद्यमानविंशतितीर्थंकर पुजा' कहते हैं। इस पूजा में स्थापनात्रय का काव्य शालिनी-छन्द में रचित है। दो से लेकर देश तक नवद्रव्यों के श्लोक द्रुत-विलम्बित छन्द में निबद्ध हैं। इस पूजा के जल द्रव्य का श्लोक सं. 2 मनोहर उक्त छन्द, रम्य शब्द एवं अर्थ से विभूषित है। इसको साक्षात् अनुभव में प्राप्त करें :
सुरनदीजलनिर्मलधारया, प्रवरकुंकुमचन्द्रसुसारया ।
सकलमंगलवांछितदायकान्, परमविंशतितीर्थपतीन् यजे ।' 1. सनपीठ पूजांजलि, पृ. 13, इलोक-।
THE :: जन पूजा-काव्य : एक चिन्तन