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जो अभिषेक कर रहे हैं-ऐसा विचार करना सन्निधापन है। (5) अभिषेकपूर्वक जिनेन्द्रदेव के गुणों का वर्णन करते हुए द्रव्य अर्पण करना पूजा है। (6) पूजाफलआत्मशुद्धि करना, धर्म प्रभावना, लोक कल्याण की कामना करना पूजाफल है। इनमें से वर्तमान पूजा विधि में कुछ पद्धति मिलती है और कुछ पद्धति नहीं मिलती है। परन्तु जैन पूजा विधि का लक्ष्य समान है, मूल मान्यता एक है। यह विषय अवश्य सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन पूजा पद्धति का, वर्तमान पूजा पद्धति पर अधिक प्रभाव च्याप्त हुआ है। वर्तमान पूजा साहित्य और तदनुसार प्रचलित पूजा पद्धति इसका प्रमाण है। इस प्रकार देव-पूजन की छह पद्धति का वर्णन श्री सोमदेव आचार्य ने यशस्तितकचम्पू में विस्तार से किया है जिसका उद्धरण :
प्रस्तावना पुसकर्म, स्थापना सन्निधापनम् ।
पूजा पूजाफलं चेति, षड्विधं देवसेवनम् ॥' श्रावक धर्म का विटेन' मारते हुए रवत राप्रटर कम दृष्टि से भी देवपूजा की छह पद्धतियाँ घोषित की हैं-(1) अभिषेक, (2) पूजन, (3) स्तवन (गुणों का कीर्तन), (4) शुद्धमन्त्रों का जाप, (5) शुद्ध ध्यान, (6) श्रुतज्ञान की स्तुति । इसी क्रम से प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की आराधना करना चाहिए। ये सब आत्म-कल्याण की प्राप्ति के साधन हैं।
स्नपनं पूजनं स्तोत्रं, जपो ध्यानं श्रुतस्तवः ।
षोढा क्रियोदिता सद्भिः देवसेवासु गेहिनाम् ॥' श्री सोमदेव, श्री जयसेन आदि आचार्यों द्वारा प्रसारित जैन पूजा-पद्धति का प्रभाव प्रायः वर्तमान पद्धति में भी देखा जाता है, समय के परिवर्तन के अनुसार समाज के भेद से पूजा-पद्धति में भी भंद देखा जाता है। जैन समाज की प्रमुख तीन परम्पराएँ हैं-(1) दिगम्बर परम्परा (जहाँ सम्पूर्ण परिग्रह आडम्बर त्यागकर दिगम्बर मुद्रा धारण करते हुए मुनिराज मुक्ति की साधना करते हैं)। (2) श्वेताम्बर परम्परा (जहाँ पर साधु श्वेत वस्त्र धारण कर जीवन में आत्मशुद्धि के लिए साधना करते हैं)। {3) स्थानकवासी परम्परा (जहाँ पर साधु श्वेतवस्त्र एवं मुख पर वस्त्र पट्टी धारण कर आत्मशुद्धि के लिए ज्ञान की उपासना करते हैं)। इनमें से श्वेताम्बर परम्परा में पूजा की पद्धति इस प्रकार है-(1) अभिषेक, (2) पूजन, (3) आरती, (4) स्तुति के माध्यम से देवपूजा की जाती है। स्थानकवासी परम्परा में शास्त्रों की आरती तथा स्तुति आदि होती है। यही पूजा की मान्यता है, इस समाज में मूर्ति-पूजा की मान्चता नहीं हैं।
1. श्रावकाचारसंग्रा. भाग-1, पृ. 180, श्लोक 445, प्रकाशक-जनसंस्कृति संरक्षक सघ सोलापुर
(महाराष्ट्र), प्र. संस्करण सन् 1976, सं.-पं. हीरालाल सिद्धान्तालंकार । 2. तथैव, पृ. 249, श्लोक 880 |
संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-काव्यों में छन्द... :: 133