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है। इसके अतिरिक्त मध्यलोक के आठवें नन्दीश्वरद्वीप का एवं उसमें विद्यमान स्वाभाविक मन्दिरों का विशेष रूप से वर्णन है। उनकी प्राकृतिक शोभा के वर्णन से मानस में हर्ष होता है, उदाहरण के लिए इस भक्तिपाठ का एक श्लोक तथा उसका तात्पर्य प्रस्तुत किया जाता है
आर्याछन्द
मुदितमतिबलमुरारि प्रपूजितो जितकषायरिपुरथ जातः । बृहदूर्जयन्तशिखरे, शिखामणिस्त्रिभुवनस्य नेमिर्भगवान्।।'
तात्पर्य- अपने कुटुम्बी भाई बलदेव और कृष्ण के द्वारा सम्मानित, क्रोध-मान- माया-लोभ-हिंसा-मोह आदि अन्तरंग शत्रुता के विजेता, तीनों लोकों में चूड़ामणि ऐसे भगवान् नेमिनाथ स्वामी, विशाल एवं उन्नत गिरनार पर्वत से सिद्ध परमात्मा पद को प्राप्त हुए। हम उनको भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं। यहाँ पर रूपक और परिकर अलंकारों के सहयोग से शान्तरस की धारा प्रवाहित होती है।
चैत्यभक्ति- इस भक्तिकाव्य में छत्तीस श्लोक मौलिक और पंचश्लोकक्षेपक ( ग्रन्थान्तर से संग्रहीत ) हैं । अन्त में प्राकृतभाषाबद्ध एक विनयभावपूर्ण गद्यकाव्य है । प्रथम श्लोक वसन्ततिलका छन्द में 2-3-4 श्लोक हरिणी छन्द में, 5 से 11 श्लोक तक आर्याछन्द में 12 से 16 तक श्लोक वियोगिनीछन्द में, 17 से 23 श्लोक अनुष्टुप्छन्द में 24 से 31 श्लोक आर्याछन्द में 92 से 36 श्लोक पृथ्वीछन्द में, क्षेपकश्लोकों में प्रथमपद्य खग्धराछन्द में, द्वितीय इन्द्रवजाछन्द में तृतीय पद्य मालिनी छन्द में, चतुर्थ शार्दूलविक्रीडित छन्द में पंचम इलोक स्रग्धराछन्द में निबद्ध है। आगे चलकर इस भक्ति पाठ के मध्य श्लोक सं. 21 और उसके भाव सौन्दर्य पर दृष्टिपात करें -
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अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तर समस्तदुरितं दूरम् । व्यवहरतु परमपावनमनन्यजप्यस्वभाव भावगम्भीरम् ॥ 2
इस भक्तिकाव्य में रूपकालंकार तथा वैदर्मी रीति के प्रयोग से शान्तरस का सरोवर भरा हुआ हैं जो आत्मा में शान्ति प्रदान करता है।
उक्त समस्त भक्तिपाठों के समान इस भक्तिपाठ के अन्त में भी एक प्राकृतभाषाबद्ध विनय गद्य काव्य है जिसका सारांश हिन्दी भाषा में इस प्रकार है - हे परमात्मन्! मैं चैत्यभक्ति का पाठ करके कायोत्सर्ग को करता हूँ। खड्गासन होकर नववार नमस्कार मन्त्र पढ़ने के बाद तीन बार प्रणाम करने को कायोत्सर्ग कहते हैं।
1. धर्मध्वान दीपक निर्वाणभक्ति, श्लोक ५८, पृ. ३०७ 2. धर्मध्यानप्रकाश चैत्यभक्ति, श्लोक 31 पृ. 133
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप : 141