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इस भक्तिपाठ में होनेवाले दोषों की मैं आलोचना (अपने दोषों को स्वयं कहना) करता हूं। तीनों लोकों में विद्यमान कृत्रिम तथा अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना, चारों प्रकार के देवों को साथ लेकर इन्द्रपरिवार दिव्य गन्ध, पुष्प, धूप, चूर्ण तथा वस्त्र द्रव्यों से अभिषेक के साथ अर्चा करते हैं, पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं। मैं भी अपने स्थान पर रहकर बिनय के साथ, उसी प्रकार से सदा समस्त चैत्यालयों की अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। मेरे दुःखों का नाश हो और दुष्कर्मों का नाश हो। मुझे सम्यक श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण की प्राप्ति हो। शुभगति की प्राप्ति हो, सपाधि मरण की प्राप्ति हो और भगवान जिनेन्द्रदेव के समान समस्त गणों रूपी सम्पत्तियों की प्राप्ति हो।
जिस प्राकृतगधकाव्य का उपरिकथित सारांश दर्शाया गया है वह प्राकृत विनयगद्यकाव्य इस प्रकार है-इच्छामि भंते, चेइयत्ति काउस्सगो, कओ, तस्सालोचेउं । अहलोय तिरियलोय, उडूढलोवम्मि किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणवेइयाणि, ताणि सवाणि, तिसुविलोपसु, भवणवासि वाण वितर जोइसिय कप्पवासियत्ति-चउविहादेवा सपरिवारा दिव्येण गण, दिव्वेण पुष्फेण, दिव्येण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिवेण वासेण, दिव्येण पहाणेण, णिच्चकालं अंचंति पुज्जति वंदति णमसंति। अह्मवि इह संतो तत्थ संताइ, णिच्च कालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि मसामि, दुक्खक्खओं, कम्मक्खओ, वोहि लाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउमझं इदि ।"
इसको प्राकृत आलोचना गद्य भी कहते हैं कारण कि इस गध में आलोचनापूर्वक चैत्य (प्रतिमा) तथा चैत्यालयों (मन्दिरों) के प्रति उत्तम द्रव्यों तथा शुद्धभावों के साथ विनयभक्ति प्रदर्शित की गयी हैं। इसी समय खगासन या पद्मासन दशा में नववार नमस्कार मन्त्र पढ़कर तीन बार नमस्कार किया जाता है।
हिन्दीभक्तिकाव्य-जिस प्रकार प्राकृत और संस्कृत साहित्य में जैन भक्तिकाव्यों की परम्परा दृष्टिगत होती है उसी प्रकार हिन्दी साहित्य में भी जैनभक्तिकाव्यों की परम्परा दृष्टिगत होती है। उस भक्ति साहित्य के अध्ययन और मनन से शान्तरस का अनुभव होता है और उसकी शब्दावली मानस-पटल को हर्षित करती है। अब हिन्दी साहित्य में जैनभक्तिकाव्यों का रसपान करें।
सिद्धभक्ति-सबसे प्रथम सिद्धभक्ति में आठ दोहा, छन्दबद्ध हैं। उदाहरण के लिए कुछ दोहे निम्न प्रकार हैं
अष्टमधसनिविष्ट है, आट प्रमुख गुणयुक्त। अनुपम जो कृतकृत्य हैं, वन्दूं सिद्ध प्रमुक्त। अनुपम अव्याबाघ जो अनुपम सौख्य अनन्त । अतीन्द्रिय आत्मीय हैं, वन्दू सिद्ध महन्त॥
1. धर्मध्यान प्रकाश : चैत्यभावत, पृ. 139
142 :: जैन पुजा-काव्य : एक चिन्तन