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उदाहरणार्थ कुछ छन्दों का दिग्दर्शन--
हैं निर्मल अति चन्द्र से, सागर से गम्भीर । वीतराग सर्वज्ञ हैं, विश्व-बन्धु वे धीर॥ सिद्धिपद को प्राप्त हैं, अष्ट कर्म से मुक्त । विश्ववन्ध जिलयर नरें अनन्त चतुष्टय युक्त। चौंतीसों अतिशय लिये, प्रातिहार्य हैं आठ ।
तीर्थकर को मैं नरें, चीतमान-मनगाँठ॥' ध्यानसिद्धि-इसमें ध्यान की सिद्धि का उपाय दर्शाया गया है।
इस प्रकार हिन्दी भाषायद उक्त तेरह भक्ति पाठ हैं जिनका नित्य पाठ करने से आत्मबल बढ़ता है, आत्मशुद्धि होती है, अशुभभाव दूर होकर शुभ परिणामों का विकास होता है। कीर्तन और आरती
पूजा-काव्य में कीर्तन एवं आरती काव्य का भी अन्तर्भाव हो जाता है, कारण कि कीर्तन एवं आरती क्रिया भी पूजा की एक क्रिया या प्रकार है। कीर्तन का अर्थ यह होता है कि परमात्मा के गुणों का गान करना, स्तुति करना। इसमें सामूहिक रूप से संगीत के साथ करने की प्रधानता रहती है, सभास्थलों, मन्दिरों, उपासना गृहों अथवा अन्यत्र यह कीर्तन की रीति सर्वत्र देश में प्रचलित है। इसी प्रकार आरती का अर्थ होता है कि परमात्मा के गुणों में मन-वचन-शरीर से लीन होना या भक्ति सहित होना। आरती यह शब्द अशुद्ध हो गया है, इसका शुद्ध रूप आरति है, आ - अच्छी तरह से या भक्ति सहित, रति = लीन होना, अनुरत होना, भक्ति करना। इस आरती की क्रिया में दीपक को लेकर संगीत के साथ नृत्य करना अथवा बिना संगीत तथा बिना नृत्य के भी यह क्रिया हो सकती है। पर सांगीत एवं नृत्य के साथ आरती की क्रिया देश में सर्वत्र प्रचलित है।
जैन-दर्शन में कीर्तन तथा आरती साहित्य भी पहान् है। संस्कृत भाषा में तथा प्राकृत में यह आरती-कीर्तन का साहित्य प्रायः देखने में नहीं आ रहा है, पर हिन्दी भाषा में अवश्य उपलब्ध होता है। हिन्दू धर्म, जैनधर्म, बौद्ध धर्म, सिक्ख-धर्म आदि की सांस्कृतिक परम्पराओं में यह आरती एवं कीर्तन की क्रिया देखी जाती है। मुस्लिम समाज और क्रिश्चियन समाज में भी यह आरती एवं कीर्तन की क्रिया देखी जाती है। परन्तु मुश्लिम समाज और क्रिश्चियन समाज में भी यह क्रिया अन्य शैली से देखी जाती है।
I. श्रीस्तोत्र पाठ संग्रह : पृ. 49.
146 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन