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योगभक्तिकाव्य - इस भक्ति पाठ में आठ काव्य तथा अन्त में एक प्राकृत विनय गद्य शोभित है। इसमें उन मुनिराजों की स्तुति की गयी है जो मन, वचन, शरीर से अहिंसा महाव्रत, सत्यमहाव्रत, अचौर्यमहाव्रत, ब्रह्मचर्यमहाव्रत और परिग्रह त्याग महाव्रत आदि अट्ठाईस मुख्य गुणों की साधना करते हैं। जो मुनिराज वर्षाकाल में जंगली वृक्षों के नीचे, शीतकाल में जंगली नदी के तट पर और ग्रीष्मकाल में पर्वत की चट्टानों पर बैठकर या विविध आसन लगाकर कठोर तपस्या करते हैं इसका वर्णन इस भक्ति पाठ में सुन्दर शैली से किया गया है जो दिगम्बरचर्या का आचरण करते हैं । अन्तिम काव्य में भक्त कुन्दकुन्द आचार्य, मुनिभक्ति के माध्यम से आत्म-कल्याण की कामना करते हैं
इतियोगत्रवधारिणः सकलतपशालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः । परमानन्दसुखैषिणः, समाधिमग्र्यं दिशन्तु नोभदन्ताः॥'
1-9-5-7 नं. के श्लोक दुबई छन्द में तथा 2-4-6-8 नं. के श्लोक भद्रका छन्द
में हैं।
आचार्यभक्तिकाव्य - इस भक्तिकाव्य में आर्याछन्द में रचित ग्यारह काव्य हैं। अन्त में एक विनयात्मक गद्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इस पाठ में आचार्य गुरुओं के ज्ञान श्रद्धान तपस्या परषह ध्यान इन्द्रियविजय और महाव्रतों की साधना का वर्णन किया गया है। अन्तिम काव्य में गुणों के स्मरणपूर्वक उनको प्रणाम किया गया है । अन्तिम काव्य का दिग्दर्शन इस प्रकार हैं
अभिनमिसकलकालुष, प्रभयोदयजन्मजरामरणबन्धनमुक्तान् ।
सततम् ॥ *
शिवमचलमनयमक्षयमव्याहतमुक्तिसौख्यमस्त्विति
जो आचार्य मन वच-काय से अनेक उपद्रवों के आ जाने पर भी सदा अचल रहते हैं, सतत उस पद के योग्य गुणों की साधना से संघ में प्रधान हैं, जन्म-जरामरण आदि दोषों को नष्ट करने में जो उद्यत हैं, ऐसे आचार्य महान् आत्माओं को हम विधिपूर्वक आचार्यभक्ति करके, करबद्ध, मस्तक नम्रीभूत कर नमस्कार करते हैं, इस नमस्कार का फल परममुक्त दशा को प्राप्त करना है, जो मुक्त दशा हीनाधिकता से रहित, निर्दोष, अविनश्वर और कर्मों की बाधा से हीन, तीन लोक में श्रेष्ठ है।
पंचगुरुभक्तिकाव्य - इस भक्तिकाव्य में आर्याछन्दबद्ध छह काव्य तथा अनुष्टुप छन्दबद्ध पंचकाव्य हैं। कुल ग्यारह काव्यों के अन्त में प्राकृतभाषा निवड एक विनय गद्य है जो विनयपूर्वक खड्गासन या पद्मासन लगाकर भक्तिपाठ के
1. धमंध्यानप्रकाश, पृ. 61
2. तथैव पू. रुक
जैन पूजा - काव्य के विविध रूप : 137