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करें। इस काव्य में आर्याछन्द में भक्ति के साथ श्रुतज्ञान का स्तवन और उससे शीघ्र पवित्र होने की भावना की गयी है अतः शान्तरस की शीतलसुधा का पान होता
है ।
चारित्रभक्ति में शान्तरस का उदाहरण
जहा खादं तु चारितं तहाखादं तु तं पुणो । किल्लाह पंचहाचार, मंगलं मलसो हणं ॥
दोहा छन्द से शोभित इस काव्य में, चारित्र के द्वारा मुक्ति के अक्षय सुख की कामना से शान्तरस के शीतल अमृत कण झलकते हैं। योगिभक्ति में शान्तरस का सौन्दर्य -
जियभयउवसग्गे, जियइन्द्रियपरीसहे जियकसाए । जियरायदो समोहे, जियसुहदुःखे गमंसामि ॥
इस पद्य में आर्याछन्द की रूपरेखा है एवं निर्दोष तपस्वियों को प्रणाम करने से आत्मा में शान्ति लाभ होता है अतः शान्तरस का प्रभाव है। आचार्य भक्ति में शान्तरस का उदाहरण --
उत्तमखमाए पुढवी, पसण्णभावेण अच्छजलसरिसा । कम्मिंघणदहणादो, अगणी वाऊ असंगादो ॥
इस काव्य में आर्याछन्द, उपमालंकार, रूपक अलंकारों के द्वारा शान्तरस की गंगा बहती है।
निर्वाणभक्ति में शान्तरस का उदाहरण
सेसाणं तु रिसीणं ण्व्विाणं जम्मि जम्मि ठाणम्मि । बंदे सच्चे, दुक्खक्खयकारणट्ठाए ॥
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भावार्थ - निर्वाणभक्ति में कथित समस्त मुनिराजों का तथा अवशिष्ट ऋषियों का निर्वाण जिस जिस स्थान से हुआ है उन समस्त निर्वाण क्षेत्रों (मुक्ति स्थानों) को या तीर्थक्षेत्रों को, हम दुःखों का पूर्णक्षय करने के लिए प्रणाम करते हैं । इस गाथा में आर्या छन्द और तीर्थंकरों के निर्वाण क्षेत्रों की भक्ति के साथ नमस्कार करने से शान्तरस का सरोवर शोभित होता है।
पंचगुरुभक्ति में शान्तरस का उदाहरण --
एणथोत्तेण जो पंचगुरु वंदए, गरुयसंसारघणवेल्लिसो छिंदए । लहई सो सिद्धिसोक्खाइ वरमाणणं, कुणइ कम्पिंग पुंज पज्ञ्जाल ।। सारांश - जो भव्य मानव इस स्तोत्र के द्वारा, अरहन्त सिद्धपरमात्मा, आचार्य - उपाध्याय साधु-इन पंच परमगुरुओं की बन्दना करते हैं वे अनन्त संसाररूप
134 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन