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इन मंगलकाव्यों में ओं अथवा नमस्कार मन्त्र (णमो हरहताणं आदि) का गौरव दर्शाया गया है। इस प्रकार जैनग्रन्थों में सहस्रों मंगलकाव्यों का दिग्दर्शन कराया गया है जिनका पठन करना आवश्यक है।
भक्तिकाव्य अथवा विनयकाव्य भक्ति कर्तव्य पूजा-सामान्य का एक अंग है। इसी प्रकार विनयकत्य भी पूजा-सामान्य का एक अंग है और भक्तिकाव्य पूजा-काव्य का एक अंग तथा विनय-काव्य भी पूजा-काव्य का एक आवश्यक अंग है। संस्कृत साहित्य में इनका अर्थ स्पष्ट किया गया है-"पूज्येषु गुणेषु वा अनुरागी भक्तिः" अर्थात् पूज्यपुरुषों में अथवा उनके गुणों में अनुराग (मानसिक प्रोति) करना भक्ति कही जाती है।
"मोक्षकारणसामावां भक्तिरेव गरीयसी"
"स्वस्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते । "पूज्येषु गुणेषु वा आदरो विनयः" अर्थात पूज्यमहात्माओं में अथवा उनके गुणों में आदर करना विनय कहा जाता है। भक्ति तथा विनय इन दोनों में शब्द की अपेक्षा भेद (अन्तर) अवश्य है परन्तु सामान्य गुण की अपेक्षा कोई भेद नहीं है। जिस प्रकार सामान्य गृहस्थ (श्रावक) अष्टद्रव्यों से भगवत्पूजन कर अपना कर्तव्य पूर्ण करता है उसी प्रकार मुनिराज, आयिका, क्षुल्लक, ऐलक, ब्रह्मचारी आदि उच्च श्रेणी के साधक दैनिक भक्तिपाठ करके अपने भाव-पूजन का कर्तव्य पूर्ण करते हैं। इसलिए जैन आचार्यों ने प्राकृत तथा संस्कृत भाषाओं में भक्ति पाठों की रचना का आदर्श उपस्थित किया है और आधुनिक कवियों ने हिन्दी भक्तिकाव्यों में उनका अनुवाद किया है जो पठनीय है।
आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा प्रणीत प्राकृत भक्तिकाव्यों का अवलोकन सर्वप्रथम कराया जाता है, कारण कि विक्रम की प्रथम शक्ती के पूर्व या पश्चातकाल में भारतीय संस्कृति के अनुरूप, प्राकृत भाषा का प्रभाव प्राकृतिक रूप से भारत में अधिक था। विक्रम की प्रथम शती में पहर्षि कुन्दकुन्द ने दक्षिण भारत को गौरवान्वित किया। उस समय भारत में प्रायः धर्म के नाम पर मिथ्या-क्रियाकाण्ड, पुण्य के नाम पर पाप, सदाशर के नाम पर अत्याचार फैल रहा था, उसी समय मानव-समाज को सन्मार्ग पर दीक्षित करने के लिए आचार्य ने आध्यात्मिक सन्देश दिया। जिससे मानव ने जीवन में शान्ति का अनुभव किया। इतना ही नहीं, पुनरपि आचार्यप्रवर ने दैनिक उपासना के लिए प्राकृत में भक्तिकाव्यों की रचना की। जिनका दैनिक पाठ कर मानव आत्मा के शान्तरस में लीन हो सके। 1. डॉ. प्रेमसागर जैंन : हिन्दी जैनभक्तिकाव्य और कवि, प्र.-भारतीय ज्ञानपीठ. देहली, प्राक्कथन,
132 :: जैन पूजा-काश्य : एक चिन्तन