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प्राकृत में मंगलकाव्य
णमो अरहंताणं णमोसिद्धाणं णमो आइरियाण । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ '
पद्यार्थ- लोक के सब अरहन्तों (जीवन्मुक्त परमात्मा) को नमस्कार हो, समस्त सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार हो, समस्त आचार्य परमेष्ठियों को नमस्कार हो, समस्त उपाध्याय परमेष्ठियों को नमस्कार हो, सर्व साधु परमेष्ठियों को नमस्कार हो । अरहन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, साधु-इन पंच को परमेष्ठ (परमपद में विद्यमान) कहते हैं।
उक्त मंगलाचरण का महत्व
एसो पंचणमोयारो सच्चपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं होइ मंगलं ।।
अर्थात् - यह पंचनमस्कार मंगल (मन्त्र) समस्त पापों ( दोषों) का नाश करनेवाला है और सर्वमंगलों में प्रथम ( अद्वितीय) मंगल है |
जीवमजीवं दव्वं, जिणवरसहेण जेण णिछिट्ठ । देविंदबिंदवंद, चंदे तं सच्चदा सिरसा।।
उक्त मंगलाचरण को श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने द्रव्य संग्रह ग्रन्थ के प्रारम्भ में कहा है। इसका भावार्थ - जिस ऋषभनाथ तीर्थंकर ने, विश्व में जीव अजीव इन दो मूल द्रव्यों का कथन किया है, देव तथा इन्द्र समूह से वन्दनीय उन ऋषभनाथ को मैं ( नेमिचन्द्र आचार्य) मस्तक नम्र कर सर्वदा प्रणाम करता हूँ ।
प्राकृत साहित्य और सिद्धान्त के तत्त्ववेत्ता श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने स्वरचित समयसार नामक आध्यात्मिक शास्त्र के प्रारम्भ में मंगलकाव्य का सृजन इस प्रकार किया है
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गर्दि पत्ते । वोच्छामि समयपाहुड मिणमो सुयकेवली भणिदं ।।
सारांश - ध्रुव (नित्य), अचल और अनुपम गति को प्राप्त हुए सम्पूर्ण सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके श्रुतकेवली (श्रुतज्ञान के पारगामी) द्वारा उपदिष्ट इस समयसार ग्रन्थ को कहूँगा ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्रणीत मंगल सूत्र -
1. श्रीपुष्पदन्त भूतवाले आचार्य: षट्खण्डागम, प्रथमखण्ड- जीवस्थान, सत्प्ररूपणा भाग-1, संशोधित संस्करण, जैन संस्कृति संरक्षक, सोलापुर (महाराष्ट्र) प्रकाशन, 1973, पृ. 8
128 :: जैन पूजा काव्य एक चिन्तन