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ने इस लिया। घर पर पुत्र की पाता रोने लगी। किसा व्यक्ति ने मन्दिर में जाकर श्री धनञ्जय को यह दुःख प्रड्वार्ता कही, तो कविवर ने कुछ भी ध्यान इस ओर नहीं दिया, ज्यों के त्यों पूजन करने में ही लीन रहे। पूजन करने के पश्चात् कविवर ने मन्दिर में ही विषापहार स्तोत्र की मौखिक रचना कर हृदय से उसका चिन्तन किया, उसी समय पुत्र विष रहित हो गया। इसी कारण इस स्तोत्र का नाम भी 'विषापहारस्तोत्र' प्रसिद्ध हो गया। इसमें उपजाति छन्द में निबद्ध 39 श्लोक हैं और अन्त का एक चालीसवाँ श्लोक पुष्पिताना छन्द में रचित है, इसमें भक्तिरस भरा हुआ है, कहीं-कहीं अलंकार भी इसकी सजावट कर रहे हैं। इस स्तोत्र में सामान्य रूप से जिनेन्द्रदेव का गुणस्मरण किया गया है। अलंकार और भक्तिरस के कुछ उदाहरण पठनीय हैं
स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः ।
प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः।। इस श्लोक में विरोधाभास अलंकार है, कारण कि शब्दों के एक अर्थ से तो विरोध की झलक होती है और दूसरे अर्थ से विरोध दूर हो जाता है।
सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्, धर्माय पापानि समाचरन्ति ।
तैलाय बालाः सिकतासमूह, निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः॥ मावरम्यता-जिस प्रकार बालक तेल के लिए धूली के समूह को पेलते हैं उसी प्रकार अज्ञानी मानव सुख के लिए दुःखों का, गुणों की प्राप्ति के लिए दोषों का और धर्म की प्राप्ति के लिए स्पष्ट रूप से पाप कार्यों का आचरण करते हैं। इस छन्द में उपमालंकार की चमक हो रही है। यह ध्वनि भी निकलती है कि मानव अज्ञानता से, स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों को प्राप्त करने के लिए अन्याय, अधर्म आदि का आचरण करके नरक जाने का प्रयत्न करते हैं, इत्यादि।
विषापहारं मणिमौषधानि, मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च।
भ्रमन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति, पर्यायनामानि तवैव तानि।। अर्थसार आश्चर्य का विषय है कि जगत के मानव विष को दूर करनेवाले मणि को, औषधियों को, मन्त्र को और रसायन आदि को यत्र-तत्र खोजते फिरते हैं परन्तु उनको यह ध्यान नहीं है कि मणि, मन्त्र, तन्त्र, औषधि एवं रसायन आप ही हैं। कारण कि ये सब मणि आदि पदार्थ आपके ही दूसरे नाम हैं। कोई अन्य पदार्थ नहीं है। इस श्लोक में आश्चर्य झलक रहा है कारण कि भक्तिरस में आश्चर्य हो रहा है। इस श्लोक में यह भी ध्वनि निकलती है कि श्री धनञ्जय के पुत्र को सर्प ने डस लिया था शरीर में विष की वेदना थी, कविवर इस विषय की दवा और कुछ भी नहीं समझ रहे थे, केवल भगवद् भक्ति को ही सब कुछ दवा के रूप में
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: !!!