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चामुण्डराय ने श्रमणबेलगोल नगर में श्री गोमटस्वामी (बाहुबलिस्वामी) की प्रतिष्ठा को किया था, जिसके प्रतिष्ठाचार्य श्री नेमिचन्द्राचार्य थे।
श्रीबाहुबलिस्तोत्र (हिन्दी अनुवाद सहित)
विसट्ट कन्दोट्टदलाणुयारं, सुलोयणं, चंदसमाण तुण्डं। घोणाजियं चम्पयपुप्फसोहं, तं गोमटेशंपणमाणि णिच्च॥ नीलकमल के दलसम जिनके, युगल सुलोचन विकसित हैं, शशिसममनहर सुखकर जिनको मुखमण्वुल मृदु प्रमुदित है। चप्पक की छवि शोभा जिनकी नम्र नासिका ने जीती, गोमटेश जिनपादपद्म की पराग नित मममति पीती।। अच्छायसच्छं जलकंतगई, आबाहुदोलंत सुकण्णपास । गइंदसुण्डुज्जल बाहुदण्ड, तं गोमटेसं पणमाणि णिच्च॥ गोलगोल दो कपोल जिनके उज्ज्वल जल सम छवि धारे ऐरावतगज की शुण्डासम, बाहुदण्ड उचल प्यारे । कन्धों पर आ, कर्णपाश वे नर्तन करते नन्दन हैं निरालम्ब वे नपसम शुचिमम गोमटेश को वन्दन है। सुकण्ठसोहा जियदिवसोक्खं, हिमालयदाम विसालकंध । सुपेक्खणिज्जायल सुछुभझं, तं गोमटेशं पणमामि णिच्च॥ दर्शनीय तब मध्यभाग है, गिरिसम निश्चल अचल रहा, दिव्यशंख भी आप कण्ठ से, हार गया यह विफल रहा। उन्नत विस्तृत हिमगिरिसप है स्कन्ध आप का विलस रहा, गोमटेश प्रभु तभी सदा मम तुम पद में मम निलस रहा॥ विज्झायलग्गे पविभासमाण, सिंहामणि सव्व सुचेदियाणं। तिलोयसंतोसयपुष्णचंद, तं गोमटेसं पणमामि णिच्च॥ विन्ध्याचल पर चढ़कर खरतर तप में तत्पर हो बसते सकलविश्व के मुमुक्षुजन के शिखामणी तुम ही लसते। त्रिभुवन के सब भव्य कुमुद ये खिलते तुम पूरण शशि हो गोमटेश तुम नमन तुम्हें हो सदा चाह बस मनवशि हो॥ लयासमक्कत महासरीरं, भव्याक्लीलर सुकप्परुक्खं । देविंदविंदस्यियपायपोम्म, तं गोमटेशं पणमामि णिच्च। मृदुतमवललताएं लिपटी, पग से उर तक तुम तन में
कल्पवृक्ष हो, अनल्प फल दो भविजन को तुम त्रिभुवन में [14 :: जैन पूजा-काम्य : एक चिन्तन
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