________________
मैं ( अमरकीर्ति) उन विश्वहितकारी ज्ञानवृद्ध अथवा परमपद को प्राप्त महावीर तीर्थंकर की स्तुति करता हूँ, जो कि अचेतन- पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य को, चेतनद्रव्य को, चितं सर्वलोक में व्याप्त, अमेय अनन्त, समस्त कलं-सुखदायक कलं- दुःखदायक, अर्थ- पदार्थ को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जानते हैं जिनके राग-द्वेष-मोह आदि भावकर्म और ज्ञानावरणादि द्रव्य आवरण नष्ट हो चुके हैं, जो रुण-कर्मरूप शत्रुओं को बहिष्कृत करने के लिए, रण-यद्धरूप हैं तथा रणम्-स्पष्ट दिव्य ध्वनि से सहित हैं।
युक्त्यागमाबाधगिरं गिरं गिरम् चित्री पिताख्येयभर भरं भरम् । संख्यायतां चित्तहरं हरं हरम् वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ।।
-
अ
मैं ( अमरकीर्ति) उन विश्वहितकारी, ज्ञानवृद्ध अथवा परमपद को प्राप्त तीर्थ महावीर की निश्चय से स्तुति करता हूँ, जिनकी वाणी, युक्ति और आगम से अबाधित है, जो गिरं-पाप को निगलनेवाले हैं, गिरं सरस्वती के उद्भव के लिए, ब्रह्मस्वरूप हैं, जिनके पूर्व जन्म की कथाओं का समूह आश्चर्य को उत्पन्न करनेवाला है, जो भरं जो स्वशरीर जगत का भरण-पोषण करनेवाले हैं, भरं की गन्ध से अमरों को आकर्षित करनेवाले हैं, संख्यावान् जो विज्ञों के चित्त को हरनेवाले हैं, हरं कर्मों का हरण करनेवाले हैं, तथा हरं दिन को करनेवाले हैं अर्थात् ज्ञान-प्रकाश को करनेवाले हैं।
=
( शार्दूलविक्रीडित छन्द)
अध्यैष्टागममध्यगीष्टपरमं शब्दं च युक्तिं विदा-चक्रे यः पश्शिीलितारिमदभिद्देवागमालंकृतिः । विद्यानन्दिभुवाभरादियशसा तेनामुना निर्मितम् बीरात्परमेश्वरीय- यमकस्तोत्राष्टकं मंगलम् ॥
-
भाव सौन्दर्य – जिसने सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन किया है, उत्कृष्ट व्याकरण का पठन किया है, न्यायशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया है तथा प्रतिवादियों के मदविदारक देवागमस्तीन के अलंकार स्वरूप अष्टसहस्रीग्रन्थ का परिशीलन किया हैं, उन विद्यानन्दभट्टारक के शिष्य, अमरकीर्ति भट्टारक ने, श्री महावीर अरिहन्त भगवान का यह यमकालंकार से अलंकृत, आठ श्लोकों का मंगलमय स्तोत्र का सृजन किया है।
108 जैन पूजा - काव्य एक चिन्तन