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प्रापद्दैव तव नुतिपदैः जीवकेनोपदिष्टः पापाचारी मरणसमये सारमेयोपि सौख्यम् । कः सन्देहो यदुपलभते वासवश्रीप्रभुत्वम् जल्पजाप्यैः मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥
कथांश - गद्यचिन्तामणि में कथा का निर्देश है- भरत क्षेत्र के हेमाँगढ़ देश की राजधानी राजपुरी नगरी के क्षत्रिय राजा सत्यन्धर के पुत्र जीवन्धर कुमार के नाम से प्रसिद्ध थे। एक दिन ये अपने मित्रों के साथ वसन्तऋतु की प्राकृतिक शोभा देखने के लिए वन में जा रहे थे। वहाँ एक जगह इनकी दृष्टि सहसा एक चिल्लाते हुए कुत्ते पर गयी, कारण कि कुछ मनुष्यों ने उस कुत्ते को पीटकर अत्यन्त घायल कर दिया था। उन्होंने दयाभाव से कुत्ते की रक्षा करने का बहुत प्रयत्न किया, पर जब कुत्ते के जीवित रहने की कोई आशा न रही, तब शीघ्र ही जीवन्धर ने उसके कान में नमस्कार मन्त्र को सुनाया, मन्त्र के सुनने से उसके चित्त में शान्ति आयी और वह कुत्ता मन्त्र के प्रभाव से मरकर चन्द्रोदय पर्वत पर यक्षजाति के देवों का इन्द्र हुआ, जो सुदर्शन नाम से प्रसिद्ध हो गया।
श्री वादिराज ने उक्त श्लोक में इसी कथा का संकेत किया है। उससे यह भाव दर्शाया है कि आपके नाम का (परमात्मा के नाम का ) श्रवण करने मात्र से यदि पशु कुत्ता देव हो सकता है तो जो मानव शुद्ध हृदय से आपकी पूर्ण रूप से स्तुति करे अथवा माला हाथ में लेकर आपके नाम रूप मन्त्र का जाप करे, वह अवश्य ही देवेन्द्र पद प्राप्त कर सकता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। यह भक्तिरस की महिमा है।
आहार्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहृद्यः शस्त्रग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः ।
सर्वांगेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषाम् तत्किं भूषावसनकुसुमैः किं च शस्त्रैरुदस्त्रैः ॥ '
तात्पर्य यह है कि आपके राग-द्वेष-मोह आदि नहीं है इसलिए आपका कोई शत्रु नहीं हो सकता और स्वभाव से एवं गुणों से सुन्दर हैं, इसलिए कोई वस्तु की भी चाह नहीं है, इससे सिद्ध होता है कि आप वीतराग, दिगम्बर परमात्मा हैं। यह तद्गुण अलंकार का चमत्कार है जिससे भक्तिरस साहित्यरसिकों को आनन्द प्रदान करता है।
1. श्री विमल भक्ति संग्रह सं. क्षु. सन्मतिसागर, प्र. - स्या. शि. प. सोनागिर, सन् 1985, पृ. क्रमशः 142, 144, 145
जैन पूजा - काव्य के विविध रूप :: ॥ ॥