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इस श्लोक में आचार्यप्रवर ने उपमा अलंकार के द्वारा भगवद्भक्ति का महत्त्व दशांया है।
वक्त्रं क्वतसुरनरोगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजगत्रितयोपमानम् । विम्बं कलंकमलिनं क्व निशाकरस्य यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ॥ इस काव्य में काकुध्वनि के साथ विषमालंकार भक्तिरस को प्रवाहित कर रहा
है ।
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर! शिवमार्गविधेः विधानाद्, व्यक्तंत्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि ॥
इस काव्य में हेतुपूर्वक परिकर अलंकार की छटा भक्तिरस को अतिमधुर बना रही है। श्री ऋषभदेव को चार हेतुपूर्वक कपशः बुद्ध-शंकर- ब्रह्मा और नारायण रूप सिद्ध कर दिया है।
उद्भूतभीषणजलोदर भारभुग्नाः शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः । त्वत्पादपंकजरजो मृतदिग्धदेहाः मत्यां भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः॥
इस श्लोक में साहित्यमर्मज्ञ आचार्य ने रूपक और उपमा अलंकार के संकर से मानवों को आकर्षित कर दिया है। इस काव्य के मन्त्र तथा यन्त्र की साधना से भयंकर रोग भी दूर हो जाते हैं, शारीरिक और आध्यात्मिक स्वस्थता प्राप्त कर लेते हैं।
मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि:
महोदरबन्धनोत्थम् ।
संग्रामवारिधि तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ स्तोत्रजं तब जिनेन्द्रगुणैर्निबद्धा भक्त्या मयारुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम् ।
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थत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्रं तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥ तात्पर्यचारुता - हे जिनेन्द्रदेव! इस विश्व में जो मानव, मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक, प्रसाद - माधुर्य ओज आदि गुणों से रची गयी, अनेक मनोहर अक्षरों (स्वर - व्यंजनों) से सुशोभित आपकी स्तोत्ररूप माला को सदा कण्ठगत करता है अर्थात् पाठ करता है, सम्मान से उन्नत उस पुरुष को स्वर्ग मोक्ष आदि की लक्ष्मी (विभूति) स्वतन्त्र रूप से प्राप्त होती है।
मालापक्ष में द्वितीय अर्थ - किसी चतुर पुरुष के द्वारा विश्वासपूर्वक धागे से रची गयी या गूँथी गयी, अच्छे रंगबिरंगे अनेक प्रकार के फूलों के सहित फूलमाला
1. पूर्वोक्त पुस्तक पृ. 1
961 जैन पूजा-काव्य : एक विन्तन