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के उत्पन्न होने में सहायक मात्र हो उसे निमित्त कारण कहते हैं। जैसे घट के उत्पन्न होने में मिट्टी उपादान कारण है क्योंकि मिट्टी ही घटरूप हो गयी है और कुम्हार, दण्ड, चक्र आदि बहुत संयोगी वस्तुएँ, घट के उत्पन्न होने में आवश्यक मिमित्त हैं कारण कि ये निमित्त कुम्हार, चक्र आदि घटरूप नहीं बन गये हैं। मिट्टी न हो और कुम्हार - चक्र आदि निमित्त विद्यमान रहें तो भी घट नहीं बन सकता है और मिट्टी विद्यमान हो तथा दण्ड-चक्र आदि बाह्य निमित्त न हों तो भी घट उत्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए यह निष्कर्ष (सारांश) निकला कि योग्य उपादान और निमित्त कारणों का संयोग होने पर ही कार्य उत्पन्न होता है। जगत् के समसत कार्यों के उत्पन्न होने का यही नियम है । प्रकृतविषय में भी यही नियम प्रयुक्त होता हैं कि भक्त ( पूजक) की आत्मा उपादान कारण है और मूर्ति मन्दिर-द्रव्य आदि निमित्त कारण हैं, इन दोनों कारणों के मिलने पर ही भक्त की आत्मा पवित्र होती है, यह परमात्मा होने की प्रथम सीढ़ी है।
इस प्रकार व्यवहारनय से मूर्ति पूजा की सिद्धि की गयी।
निक्षेप की दृष्टि से मूर्तिपूजा की सिद्धि
नय की दृष्टि से प्रचलित वस्तु सम्बन्धी लोक व्यवहार निक्षेप हैं। निक्षेप छह प्रकार के है नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप, क्षेत्र निक्षेत्र, काल निक्षेप, भाव निक्षेप । इनकी अपेक्षा से मूर्ति के भी छह प्रकार हो जाते हैं- नाममूर्ति, स्थापना मूर्ति, द्रव्य मूर्ति, क्षेत्र मूर्ति कालमूर्ति, भावमूर्ति ।
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(1) नाम - मूर्ति - द्रव्य जाति गुण तथा क्रिया के बिना किसी व्यक्ति का मूर्ति यह नाम रखने को नाममूर्ति कहते हैं- राममूर्ति, त्यागमूर्ति इत्यादि ।
(2) स्थापना - मूर्ति - लेखनी आदि से चित्र बनाकर अथवा किसी भी धातु पाषाण आदि की, मूलवस्तु के अनुरूप ( तदाकर) मूर्ति (प्रतिमा) बनाकर बुद्धि से उसमें 'यह वह है' इस प्रकार मन्त्र पूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव करना स्थापना मूर्ति कही जाती है, जैसे पार्श्वनाथ की मूर्ति में भगवान अर्हन्त पार्श्वनाथ की कल्पना करके पार्श्वनाथ के गुणों का अर्चन करना, अथवा भगवान महावीर की मूर्ति बनाकर उसमें बुद्धि पूर्वक मन्त्रों द्वारा महोत्सव के साथ भगवान महावीर की प्रतिष्ठा (स्थापना) करना । अथवा शतरंज की मोहरों (गोटों) में बादशाह, वजीर आदि की स्थापना
करना ।
नाम निक्षेप तथा स्थापना निक्षेप में यह अन्तर है कि नाम निक्षेप में नाम मात्र की प्रधानता होने से मूल पदार्थ की तरह पूज्यता नहीं होती है परन्तु स्थापना निक्षेप में मूलवस्तु या मूर्तमान पदार्थ को स्थापना होने से पूज्यता या आदरभाव मूर्ति में हो जाता है। जैसे किसी का महावीर नाम है तो उसकी पूज्यता भगवान महावीर के समान न होगी परन्तु यदि भगवान महावीर की साकार भूर्ति में प्रतिष्ठा कर दी
70 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन