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(2) द्वितीय अर्थ - जो सिद्ध दशा को प्राप्त हैं, द्रव्यकर्म विकार के नाश से शुद्ध, भाव विकार के अभाव से निष्कलंक, सम्यग्दर्शन आदि श्रेष्ठगुण रूप आभूषणों से सुशोभित हैं, ऐसे जिनेन्द्र श्रेष्ठ नेमिनाथ तीर्थंकर रूप चन्द्र को प्रणाम कर, पूर्वाचार्य परम्परा से प्रसिद्ध संशय आदि दोषों से रहित, हिंसा आदि पापों से विहीन, रत्नत्रयगुण के विकास को करनेवाले, जीवतत्त्व का वर्णन करने में समर्थ से जीवाण्डग्रन्थ को मैं नेमिचन्द्र आचार्य कहता हूँ । इत्यादि नव तरह के अर्थ उक्त गाथा से निकलते हैं, अतः यह स्तव काव्य है।
हिन्दी भाषा में स्तव का उदाहरण
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जय,
अर्हन्तसिद्ध आचार्यनमन हे उपाध्याय हे साधु नमन । जयपंच परमपरमेष्ठी भवसागरतारणहार नमन! मन व कायापूर्वक करता शुद्ध हृदय से मैं आह्वान । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवान ॥ निज आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु ले अष्ट द्रव्य करता पूजन ।
तुम चरणों की पूजन से प्रभु, निज सिद्धरूप का हो दर्शन ।। ।
उक्त पद्य में संक्षेप में पंचपरमेष्ठी देवों का गुणवर्णन होने से स्तय-काव्य है। अनेक पूज्य आना था महापुरुषों का विस्तार से गुणकीर्तन करना भी स्तव या स्तवन कहलाता है।
संस्कृत में इसका उदाहरण
स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले, समंजसज्ञानविभूतिचक्षुषा । विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः । "
सारांश - जो स्वयं ज्ञानादि गुणों को पूर्ण रीति से प्राप्त हुए, प्राणियों के हितैषी, समीचीन ज्ञानरूप नेत्र से शोभित, गुणों से उज्ज्वल वचनों से संयुक्त, ज्ञानावरण आदि कर्मरूप अज्ञान को नष्ट करते हुए जो पृथ्वीतल पर, अर्थप्रकाशकत्व आदि गुणों से शीभित, किरणों के द्वारा लोक में अन्धकार को ध्वस्त करते हुए चन्द्रमा के समान जो ऋषभदेव शोभित होते थे ।
बहुगुणसम्पदत्तकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नयभक्त्यवतंसकलं तव देव मतं समन्तभद्रं सकलम्'
1. सुभाषचन्द्र : ५गात्मपूजासंग्रह, त्र - जैन साहित्य प्रचार समिति ग्यालियर, बाळसंस्करण, भू. 27
2. समन्ननद्रायाय यंत्र सं.मं. बन्नातान साहित्याचार्य प्र. - टि. जैन संस्थान महावीर
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. 1969, 3.1
4. T. 1.39
92 जैन पुजा काव्य एक चिन्तन
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