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शास्त्रों का व्याख्यान हो उसे धर्मकथा कहते हैं। जैनदर्शन में सैकड़ों स्तव (स्तवन) काव्य हैं
श्रेयान् श्रीवासुपूज्यो वृषभजिनपतिः श्रीगुमाकोऽथ धर्मो हर्वकः पुष्पदन्तो मुनिसुव्रतजिनानन्तवाक् श्रीसुपाश्वः । शान्तिः पद्मप्रभोरो विमलविभुरसौवद्धमानोप्यजाको
मल्लिर्नेमिनाममा॑ सुमतिखतु सच्छ्रीजगन्नाथधीरम्॥ सन्दर्भ-दक्षिणभारत में वि.सं. 1699 में श्रीभट्टारक नरेन्द्रकीर्ति के परम शिष्य महाकवि श्री जगन्नाथ महोदय ने 'चतुर्विंशतिसन्धान' नामक ग्रन्थ की रचना कर संस्कृत साहित्य का गौरव बढ़ाया है। इस ग्रन्थ में स्त्रग्धरा छन्द में रचित संस्कृतभाषा का ऊपर लिखा एक ही श्लोक है। इस एक ही श्लोक में चौबीस तीर्थकर महात्माओं का गुणगान किया गया है। उक्त श्लोक के पच्चीस अर्थ व्यक्त होते हैं-चौबीस तीर्थंकरों की गौरवगाथा के द्योतक 24 अर्थ तथा समच्चय चौबीस तीर्थकरों की स्तुति का द्योतक एक अर्थ-इस तरह पच्चोस अर्थ यातित होने से इस ग्रन्थ का नाम 'चतुर्विशतिसन्धान' सार्थक रखा गया है। इसमें शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष दोनों अलंकार हैं। यह शान्तरस से परिपूर्ण है। इस श्लोक को स्तव वा स्तवन कहा जाता है। संस्कृत श्लोक है। प्राकृतभाषा में स्तव का उदाहरण
सिद्ध सद्धं पणमिय, जिणिन्दवरणमिचन्दमकलक ।
गुणरयणभूसणुदयं, जीवस्स परूवणं बोच्छ।' इस प्राकृतगाथा में नव व्यक्तियों को नमस्कार किया गया है{1) चौबीस तीर्थकर, (2) भगवान महावीर, {५) सिद्धभगवान्, (4) आत्मा, (5) सिद्धचक्र, (6) पंचपरमेष्ठीदेव, (7) भगवान नेमिनाथ, (8) जीवकाण्डग्रन्थ, (9) नेपिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती। इसमें 9 देवों के गुणों का वर्णन है।
(1) प्रथम अर्थ-जो द्रव्य कर्म के अभाय से शुद्ध, भावकर्म के अभाव से निष्कलंक, अन्तिदेव से भी श्रेष्ठ, केवलज्ञानरूपी चन्द्र से शोभित और सम्यग्दर्शन
आदि श्रेष्ठ गुणरूप आभूषणों से सुशोभित है ऐसे सिद्धों को नमस्कार कर जीव का निरूपण करनेवाले जीवकाण्डग्रन्थ को, मैं नेमिचन्द्र आचार्य रचता हूँ।
1. कौत्र जगन्नाय-चतुशिविसन्धानकाच्यम् : सं. लाताराम शास्त्री, प्र.-वंशीधर उटायराजपण्डित,
सोलापुर, सन् 1999, पृ. !! ५. नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटमारजीचकाण्ड : सं. पं. खूबचन्द्रशास्त्री, प्र.- श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगास.
सन् 1977, पृ. 1. मंगलाचरण ।
जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 91