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हे महावीर! अन्य एकान्तवादियों का शासन, कर्णप्रिय वचनों से मनोज्ञ होता हुआ भी, अधिक गुणरूप सम्पत्ति से हीन है। परन्तु आपका शासन नवरूप आभूषणों से मनोज्ञ है, सब प्रकार से कल्याणकारक है और सम्पूर्ण है।
प्रथम उक्त श्लोक 'वृहत्स्वयंभूस्तवन' का प्रथम श्लोक है और द्वितीय श्लोक 'बृहत्स्वयंभूस्तवन' का 144याँ श्लोक है, इसकी रचना आचार्य समन्तभट्ट ने विक्रम की तृतीय-चतुर्थ शती के मध्य की। इस स्तवन में चौबीस तीर्थकरों का विस्तार से गुणानुवाद है इसलिए यह काव्य स्तव अथवा स्तबन कहा जाता है।
प्राकृतभाषा में विस्तृत स्तव का उदाहरण
असरीरा जीवघना उपजुत्ता दंसणेय गायेय। सायारमणावाराा लक्खणभेयं तु सिद्धाणा तब सिद्धे पयसिद्धे संजयसिद्धे चरित्तसिद्धेय ।
णाणम्मि दंसणप्मिय सिद्धे सिरसा णमस्सामि।।' सारांश-शरीररहित, चैतन्यपिण्ड, ज्ञानदर्शनरूप उपयोग से सम्पन्न, साकार निराकार स्वरूप आदि अनेक लक्षणों से परिपूर्ण सिद्धपरमात्माओं को हम प्रणाम करते हैं। तपसिद्ध, नयसिद्ध, संयमसिद्ध, उत्तमचारित्रसिद्ध, केवलज्ञानसिद्ध, कैवलदर्शनसिद्ध इन गुणों से सुशोभित सिद्धपरमात्मा समूह को हम मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं।
प्रथम शताब्दी के आध्यात्मिक ऋषि कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्राकृत में सिद्धाभक्ति की रचना की गयी है जिसके प्रथम और अष्टम (अन्तिम) गाथाएँ ऊपर कही गयी हैं, इस भक्ति में सिद्धचक्र को नमस्कारपूर्वक गुणवर्णन किये गये हैं विस्तार से। अतः यह स्तव-काव्य है। हिन्दी भाषा में स्तव-काव्य का उदाहरण
परमदेव परनाम कर, गुरु को करहुं प्रणाए। बुधिवल वरणों ब्रह्म के, सहस अटोत्तर नाम। केवल पदमहिमा कहों, कहीं सिद्ध गुनगान। भाषा प्राकृत संस्कृत, त्रिविध शब्द परमान।। एकास्थवाची शबद, अरु द्विरुक्ति जो होय । नाम कथन के कवित में, दोष न लागे कोय।।
!. प्र. शीततप्रसाद : प्रतिष्ठासारसंग्रह-सिद्धभक्ति : प्रणेता पूज्यपादाचार्य, प्र.. दि. जैन पुस्तकालय
गाँधीचौक सूरत, 1912, पृ. 119
जैन पूजा-कार्य के विविध रुप :: 93