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और व्रत-उपवास आदि का उपदेश प्रदान किया था। महापुराण में आचार्य जिनसेन द्वारा गर्भाधान, जन्म, विवाह आदि संस्कारों के सम्पन्न कराने में पूजा की आवश्यकता व्यक्त की गयी। तथाहि
“पूजयित्वाऽहतो भक्त्या, सर्वकल्याणकारिणी।" सर्वकल्याणकारी अर्हन्त देव का भक्तिपूर्वक पूजन कर जन्मोत्सव, विवाह आदि संस्कार करना चाहिए।
वास्तविक बुद्धिभाव से लक्ष्य को रखकर की गयी मूर्तिपूजा जड़पूजा नहीं कही जा सकती। जड़पूजा का रूप तो यह है कि कोई मानव मूर्ति के सामने स्थित होकर अज्ञानभाब से यह कहे कि हे भगवान! आ पड़े ही मर , पर समक्ष एक चतुर कारीगर (शिल्पी) ने बड़े परिश्रम से बनाया था, तुम्हारी क्रीमत पच्चीस हजार रुपये है, तुम्हारे यहाँ ले आने में भी बहुत रुपयों का व्यय हो गया है, तुम्हारे हाथ-पाद आदि अंग तथा नेत्र-कान-नासिका आदि उपांग बड़े सुन्दर हैं, आप को देखते ही नर-नारीगण बड़े प्रसन्न होते हैं, आप का वजन पचास क्विण्टल प्रमाण है, आप के शरीर की मोटाई तथा अवगाहना प्रशंसा के योग्य हैं, आप की पूजा हम जीवन भर करेंगे-बह सब कर्तब्य तथा ज्ञानशून्य केवल जड़पूजा या पुद्गल पूजा
सत्यार्थ मूर्ति पूजा का रूप यह होता है कि एक ज्ञानी कर्तव्यनिष्ठ भव्य मानव मूर्ति के सामने स्थित होकर कहता है
सकलज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्दरसलीन।
सो जिनेन्द्र जयवन्त नित, अरि रज रहस-विहीन। हे भगवन् ! आप जगत् के सकल पदार्थों के ज्ञाता अर्थात सर्वज्ञ होने पर भी उन पदार्थों के प्रति मोह, राग, द्वेष, तृष्णा आदि दोषों से लिप्त नहीं हैं किन्तु
आत्म-शान्ति, ज्ञान, दर्शन रूप रस में लीन हैं, आप मोहनीय कर्म ज्ञानवरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, अन्तरायकर्म-इन चार घातक कर्मों से रहित होकर, अक्षय ज्ञान, दर्शन, सुख-वीर्य (बल) गुणों से विभूषित हैं, आप इस जगत् में सर्वदा जयवन्त रहें। संस्कृत दर्शन स्तोत्र के कतां मूर्ति के समक्ष भक्ति व्यक्त करते हैं
दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् ।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्॥' इस कवन से यथाथं मूर्तिपूजा का रूप अनुभव से सिद्ध होता है। यह 1. बृहत् पहावीर कीर्तन : म. पं. मंगलसेन विशारद, प्र.-बोर पुस्तकालय श्री महावीर जी, सन
1971, पृ. 4. 2. यही ग्रन्थ, पृ. 7.
74 :: जैन पूजा-काञ्च : एक चिन्तन