________________
से गज़नवी की रक्षा की। गजनवी ने कहा कि यहाँ से जल्दी चलो, उस अतिशय वाली मूर्ति को तोड़कर अपनी जान नहीं खोना है।
यह भगवान बड़े बाबा (आदिनाथ) की प्राचीन मूर्ति का परम अतिशय सिद्ध होता है।
सन् 1755 के आस-पास की घटना है। हैदरअली ने दक्षिण भारत को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। उसने एक विशेष वार्ता सुनी कि श्रवणबेलगोल नामक तीर्थस्थान में एक विशाल सुन्दर मूर्ति है। उसने उसको तोड़ने का विचार किया। वह पर्वत पर विशाल मूर्ति के निकट आया। विन्ध्यगिरि पर निराधार खड़े हुए, विश्वविजयी मनोज्ञ विशाल श्री बाहुबलि स्वामी को ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर की और पुनः-पुनः देखता हुआ वह अवाक् खड़ा रह गया । वैराग्यपूर्ण, त्याग एवं शान्ति का आदर्श उस मनोज्ञ ज्योति नं, बातचीत के बिना ही हैदर के हृदय को जीत लिया, उसकी विध्वंस की भावना विकास के रूप में बदल गयी। उसका घमण्ड भी बाहुबलि की वीरता के सामने चूर-चूर हो गया। उसका अकड़ा मस्तक उन्नत मस्तक के सामने झुक गया। _ "जब टाटा कम्पनी का इंजीनियर बाहुबलि की विशालमूर्ति के सम्मुख पहुँचा तो आश्चर्यचकित हो उस मूर्ति को ऊपर से नीचे की ओर तथा नीचे से ऊपर की ओर निहारने में घण्टों तक तल्लीन खड़ा रहा, कुछ कह नहीं पाया।
भारतीय गणराज्य के प्रधान मन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने जब गोम्मटेश बाहुबलि के दर्शन किये तो वे एकान-दृष्टि एवं अवाक रह गये, बहुत देर तक खड़े रहकर कहने लगे कि "यदि इस मूर्ति में दैविक शक्ति नहीं होती तो एक हजार वर्ष पर्यन्त सुरक्षित रहना असम्भव था" (अहिंसावाणी वर्ष, 2 जनवरी 1953) ।
इन उक्त ऐतिहासिक घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि वीतराग (आइम्वर हीन) मूर्ति, पौन रहकर भी शान्ति का सन्देश देती है। धीरता एवं परोपकार का पाठ पढ़ाती है, मूर्ति को देखकर मूल वस्तु (मूर्तमान) के स्मरण से भक्तों के मन प्रभावित होते हैं।
दिगम्बर (वीतराग) मूर्ति का प्रभाव नो किञ्चित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किञ्चिद् दृशोः दृश्यं यस्य न कर्णयोः किमपिहि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालन्धितपाणिज्झितगतिः नासाग्रदृष्टिरहः सम्प्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानकतानो जिनः॥'
1. श्रीपद्मनन्दि : श्री पटुमनन्दि पंपिंशप्तिका : सं. जवाहरलाल सि. शास्त्री, प्र.-दि. जैन समाज
भीण्डर (राजस्थान), सन् 1983, पृ. 5. पद्य १.
82 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन