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कुटी पर गये। गुरुजी ने एकलव्य से प्रश्न किया कि तुमने प्रखर बाण-विद्या का अभ्यास किस गुरु से किया! तब एकलव्य ने उत्तर दिया कि जब आपने मुझे धनुर्विद्या सिखाने का निषेध कर दिया, तब मैंने कुटी में आपकी मूर्ति बनाकर प्रतिदिन पूला वरते हुए, बाण किया ना अन्नात किया और में रक्षता भी प्राप्त हो गयी। उस समय गुरुजी और शिष्यों को साश्चर्य यह विशेष वार्ता समझ में आ गयी कि साक्षात् गुरु के बिना भी, उनकी मूर्ति का ध्यान करके अथवा उनके गुणों का स्मरण करके कला का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, इस घटना से गुरुजी और शिष्य-कीरव एवं पापइव बड़े प्रभावित हुए।
इतिहास के इस कथानक से मूर्तिपूजा का पहत्व सिद्ध होता है।
भारत के ओजस्वी नेता स्वामी विवेकानन्द श्री अलवरनरेश से मिलने गये। कारण कि स्वामी जी ने यह जान लिया था कि अलबरनरेश ने अंग्रेजों और योरोपीय सभ्यता से प्रभावित हो मूर्तिपूजा और ईश्वर-आराधना छोड़ दी है।
स्वामी जी ने कहा-हमारा अभिप्राय यही है कि यदि आप चित्र, रेखाचित्र या फोटो का महत्त्व समझते हैं तो आपको उसी प्रकार मूर्ति का भी महत्त्व समझना चाहिए। चित्र केवल आकार हैं और मूर्ति, मूल पदार्थ की तरह अंगोपांग वाली होती है, चित्र से भी अधिक महत्व इस मूर्ति का होता है। इसी प्रकार परमात्मा का चित्र या मूर्ति का भी वही महत्त्व वा पूज्यता होती है जो साक्षात्-परमात्मा की होती है इसलिए आप सबको परमात्मा को मूर्ति को परमात्मा की तरह पूज्य मानकर उसका सम्मान, पूजा या दर्शन करना चाहिए, उसका अपमान नहीं करना चाहिए। इस मूर्ति का भी हृदय पर बहुत प्रभाव होता है, वह सदैव पूज्य होती है। परमात्मा तो अदृश्य
और अमूर्तिक होता है उसका दर्शन तो मूर्ति के माध्यम से किया जा सकता है। लोक में भी यह प्रथा देखी जाती हैं कि जब अर्हन्त परमात्मा या किसी देवी देवता के साक्षात् दर्शन न हों तो मूर्ति या चित्र की रचना कर उस मूल पदार्थ के दर्शन किये जाते हैं अतः मूर्ति के माध्यम से परमात्म देव के दर्शन करना मानव के लिए उपयोगी है। यदि इस चित्र या मूर्ति पर थूकने से सजा का अपमान और आदर या दर्शन करने से राजा का सम्मान होता है तो इससे सिद्ध होता है कि मूर्ति की स्थापना करना आवश्यक है।
महमूद गजनवी अपने साथियों के साथ अनेक स्थानों की मूर्तियों और मन्दिरों को तोड़ता हुआ कुण्डलपुर आया। उसके साथियों ने पर्वत पर जाकर भगवान वई बाबा की मूर्ति पर प्रहार किया तो उसमें से दूध की धारा निकल पड़ी। यह चमात्कार देख वे डर गये। क्रोध के आवेग से गजनवी पर्वत की ओर तेजी से बढ़ा ही था कि हजारों मधुमक्खियों ने उसे काटना प्रारम्भ कर दिया। सिपाहियों ने अनेक उपायां
I. डॉ. शम्भुनाथ सिंह : प्राधीन भारत की गौरवगाथा, प्र.-चौखम्भा सं.सी. वाराणसी, प्र.पू. 34.
जैन पूजा-काव्य का उदभव और विकान ::