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इसका सारांश यह है कि पूजन विधान आदि रूप उत्सवों में विधि करने के लिए तत्पर हम गृह सम्पत्ति आदि वस्तुओं में मोह-माया का त्याग करते हैं, सब वस्तुओं से चित्त को हटाकर केवल परमात्मा के स्तवन में लगा रहे हैं, पूजा के फलस्वरूप स्वर्ग आदि की लक्ष्मी को भी नहीं चाहते हैं। पूजन के प्रारम्भ में सकलीकरण करते हुए याजक को आचायों ने सूचित किया है कि यद्यपि आप सब पूजन की सम्पूर्ण बाह्य सामग्री एकत्रित करते हैं तथापि अन्तरंग भावशुद्धि के बिना सब सामग्री विफल हो जाती है।
पूजा के बाह्य साधन-सामान्य रूप से योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये चार साधन हैं। विशेष रूप से साधन योग्य क्षेत्र में स्थित मन्दिर, योग्य वेदी, योग्य पूर्ति, टेबिल आदि योग्य फर्नीचर, पूजन के सम्पूर्ण वर्तन, स्नान कर शुद्ध वस्त्र धोती, दुपट्टा, बनियान आदि धारण करना, चर्म आदि अशुद्ध वस्तुओं का तथा अशुद्ध वस्त्रों का उपयोग न करना, मन्दिर में कोई भी वस्तु नहीं खाना, शुद्ध आठ द्रव्यों का उपयोग करना। आठ द्रव्य हैं-जल ( कुआँ का), चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य ( गरी), दीप (पीलीगरी या दीपक), धूप ( दशांगी या चन्दन की शुद्ध), सुपारी, बादाम, लौंग इलायची आदि प्रासुक फल, अक्षत अर्थात् सफेद चावल पुष्प केशर से रंगे पीले चावल शुद्ध घृत का प्रज्वलित दीपक शुद्ध धूप का अग्नि में क्षेपण करना। अग्नि रखने का पात्र होना आवश्यक है ।
कुछ व्यक्ति सामूहिक रूप से विशेष पूजा या विधान करते हैं। उस समय विशेष अष्ट द्रव्य, श्रीफल तथा गरी का गोला, कपूर की वाती को अर्ध, महार्घ, पूर्णार्घ के समय अर्पित करते हैं। आठ द्रव्यों के समूह को अर्थ कहते हैं। गरी का गोला तथा श्रीफल आदि विशेष वस्तु, महार्घ तथा अन्त में पूर्णार्घ के समय अर्पित करते हैं। अतः विशेष वस्तु के साथ अर्ध को महार्घ या पूर्णार्थ कहते हैं। पूजन की आठ द्रव्यों के भिन्न-भिन्न प्रयोजन (लक्षण) होते हैं। इसलिए वे सार्थक हैं, व्यर्थ नहीं हैं। प्रयोजन दो प्रकार के होते हैं- 1. लौकिक प्रयोजन, 2. अलौकिक (आध्यात्मिक) प्रयोजन शुद्ध भावपूर्वक पूजन से दोनों प्रकार के मनोरथ सिद्ध होते हैं।
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क्रम द्रव्य
लौकिक मनोरथ
1. जल पापों तथा दुःखों की शान्ति
सुगन्ध शरीर की प्राप्ति
इस लोक में सम्पत्ति की प्राप्ति स्वर्गीय मन्दारमाला प्राप्ति परलोक में लक्ष्मी की प्राप्ति शारीरिक कान्ति की प्राप्ति
2. चन्दन 3. अक्षल
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4. पुष्य 5. नैवेद्य i. दीप
आध्यात्मिक मनोरथ
जन्म-जरा-मरण के विनाशार्थ संसार - सन्ताप के विनाशार्थ अक्षय पद ( परमात्मा) के लिए काम एवं इन्द्रियों के विजयार्थ भूख-प्यास के पूर्ण विनाशार्थ अज्ञानतम के विनाशार्थ
जैन पूजा काव्य का उद्भव और विकास : 85