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है। आत्मा से परमात्मा बन जाने में दूसरा निमित्त कारण या साधन पूर्वोक्त नव देवता या सत्यार्थ देव-शास्त्र-गुरु हैं जिनका वर्णन पहले कर आये हैं।
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अवसर्पिणी कल्पकाल के चतुर्थकाल ( कृतयुग सतयुग) में मानवों को आत्मकल्याण के लिए साक्षात् नवदेवों का संयोग या सत्संगति समय-समय पर प्राप्त हो जाया करती थी, जिससे कि संसार की माया में लिप्त यह मानव आत्म-विकास कर लेता था । अर्हन्तदेव की साक्षात् वाणी सुनकर या उपासना करके आत्म-कल्याण करता था। सिद्धपरमेष्ठी की आराधना परोक्षरूप में करके आत्म-साधना करता था। आचर्ण, सध्या पत्माओं का प्रत्यक्ष दर्शन, अर्चन, कीर्तन तथा उपदेश श्रवण कर अपनी मुक्ति मार्ग की साधना में दत्तचित्त हो जाता था । प्रत्यक्ष रूप से तत्त्वोपदेश को श्रवण-मनन कर, स्वाध्याय कर तत्त्वज्ञानी हो जाता था, परन्तु इस कलिकाल में साक्षात् मूर्तमान नवदेव नहीं हैं और धार्मिक उपासना करके, कर्तव्य का ज्ञान करना और आत्मशुद्धि करना आवश्यक है अनिवार्य है। ऐसी विषम परिस्थिति में बुद्धिजीवी मानव ने प्रतिमा पद्धति या प्रतिनिधि पद्धति का आविष्कार इस युग में किया है। इस प्रतिमा पद्धति का उदय जैन आचार्यों के उपदेश से धर्म तथा नीति के अनुसार हुआ है।
" मूर्तियों की पूजा श्रावकों की धार्मिक तृप्ति का साधन नहीं है। इस साधन में अभीष्ट देव के निवास स्थान की कल्पना भी रही, जो मन्दिर के रूप में साकार हुई। स्थापत्य के रूप में मन्दिरों का निर्माण कदाचित् सर्वप्रथम उत्तर भारत में हुआ । साहित्य में ईशा पूर्व छह सौ वर्ष से भी प्राचीन मन्दिरों के उललेख मिले हैं। मधुरा, काम्पिल्य आदि में पार्श्वनाथ महावीर आदि मन्दिरों का निर्माण हुआ था। महावीर से दो सौ वर्ष पूर्व मथुरा के कंकाली टीले पर किसी कुबेरा देवी ने पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था" ।'
" जैन आम्नाय के अनुसार, वास्तव में व्यक्ति विशेष की पूजा का विधान नहीं है बल्कि मूर्तमान की उस गुणराशि की पूजा है जो स्वात्मदर्शन के लिए परम सहायक है। वास्तव में भावपूजा ही सार्थक है न कि द्रव्यपूजा अथवा भौतिक उपासना । इसका कारण यह है कि जैनदर्शन में पूजा का तात्पर्य उस व्यक्ति-पूजा से नहीं, जो सामान्य अर्ध में प्रचलित है बल्कि किसी भी कृतकृत्य मनुष्य अर्थात् मुक्त आत्मा की उस गुणराशि की पूजा से हैं जिसका तीर्थकर मूर्ति की पूजा के रूप में कोई पूजक अनुस्मरण करता है" 12
प्रमाण और नयज्ञान से वस्तु (पदार्थ) का विज्ञान होता है, प्रमाण से वस्तु
1. 'जैनकला में प्रतीक' लेखक पवनकुमार जैन प्र. जैनेन्द्र साहित्य सदन ललितपुर । प्र. सं. 1983, पृ. 18.
2. 'जैनकला में प्रतीक' लेखक पवनकुमार जैन ललितपुर प्र.सं. 1983, पृ. 51.
जैन पूजा -काव्य : एक चिन्तन