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स्थान कहे गये हैं। ये चैत्यालय न केवल प्रतिमा के स्थान होते हैं किन्तु अन्य धार्मिक साधनों के भी आयतन होते हैं, जैसे शास्त्र भण्डार, पुस्तकालय, स्वाध्यायशाला, ध्यानकेन्द्र, धर्मशाला, उपासनागृह, वस्तु भण्डार, आहारदानशाला, औषधिशाला, पाठशाला, सभा भवन, कार्यालय । इन सब विभागों का पृथक्-पृथक् होना आवश्यक है। वर्तमान समय को लक्ष्य कर ऐसी समीचीन व्यवस्था हो जिससे इन मन्दिरों का माध्यम प्राप्त कर समाज अपना धार्मिक साधन अच्छी तरह कर सके, समाज का एकीकरण तथा सामाजिक व्यवस्था का संचालन सुरीत्या हो सके।
इसी विषय का कथन करते हुए श्री पण्डितप्रवर आशाधर ने चैत्यालय की आवश्यकता तथा सफलता को व्यक्त किया है
प्रतिष्ठायात्रादिव्यतिकरशुभस्वैरचरणस्फुरद्धोद्धर्षप्रसररसपूरास्तरजसः । कथं स्युः सागाराः श्रवणगणधर्माश्रमपदं
न यत्राहंगेहं दलितकलिलीला विलसितम्।।' सारांश-जहाँ पर जिन मन्दिर होते हैं वहाँ प्रत्येक मानव को प्रतिदिन दर्शन, अर्चन, भजन, कीर्तन एवं स्वाध्याय आदि का सुयोग प्राप्त होता है, मन्दिर के योग्य आधार से समाज में सदा धार्मिक उत्सव मनाये जाते हैं, उन धार्मिक उत्सवों में समाज के एकत्रित होने से सामूहिक रीति से महती धर्म प्रभावना होती है, धर्म-पालन के विषय में उत्साह बढ़ता है, जीवननिर्वाह के दैनिक कार्यों से तथा व्यापार आदि के कार्यों से जो पाप या दोष उत्पन्न होते हैं उनका प्रक्षालन (शोधन) होता है, कलिकाल का अधर्म या अन्याय रूप वातावरण का नाश होता है। मुनिराज, त्यागी, व्रती आदि धर्मात्मा पुरुषों का आश्रय स्थान है, धर्म का आयतन है। जहाँ पर मन्दिर नहीं होते हैं वहाँ पर ऊपर कहे गये सभी धर्म के साधन होना असम्भव है। जहाँ पर मन्दिर शोभायमान नहीं होते, वह नगर या ग्राम श्मशान जैसा झलकता है। इस प्रकार मानव का कर्तव्य है कि वह नित्य चैत्यालय देवता की भी आराधना करे।
इस प्रकार जनदर्शन में पूजा का आधार रूप नवदेव कहे गये हैं जिनकी परिभाषा तथा उपयोगिता का वर्णन किया जा चुका है। इस विषय में जैन आचार्यों के प्रमाण का दिग्दर्शन इस प्रकार है
मध्ये कर्णिकमर्हदार्यमनघं बायेऽष्टपत्रोदरे, सिद्धान् सूरिबरांश्च पाठकगुरून, साधूश्च दिक्पत्रगान् ।
I. पं. आशाधर : सागार-धमांमृत : सं. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्र.-'मारतीय ज्ञानपीठ, न्यू. देहली.
1978, अध्याय 2, श्लोक 37.
66 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन