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ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या, ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् । न किंकित हुप्ता हि श्रुतदेवयोः॥'
सारांश - जो मानव भक्तिपूर्वक शास्त्र का पूजन करते हैं। वे मानव परमार्थरीति से जिनेन्द्र ( अर्हन्त ) भगवान की ही पूजा करते हैं। कारण, कि सर्वज्ञ देव, शास्त्र और परमात्मा में कुछ भी अन्तर नहीं कहते हैं। अर्हन्त की वाणी का प्रतिनिधि ही शास्त्र कहा जाता है।
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8. चैत्य (प्रतिमा) देवता का अर्चन
पूर्व में कहे गये नव देवताओं में आठवें क्रमांक के देवता चैत्य (प्रतिमा) है, कारण कि यह प्रतिमा देवता भी पूर्व कथित (1 अर्हन्त, 2 सिद्ध, 3 आचार्य, 4. उपाध्याय, 5. साधु, 6. धर्म, 7. आगम-शास्त्र) सात देवताओं के समान हितकारी, प्रभावक, पुण्य प्रदायक, पापनाशक और चित्त के विचारों को पवित्र करनेवाला है। स्थिरता से धर्म पालन करने का साधन है। प्रतिमा (मूर्ति) मूल पदार्थ के गुणों का स्मरण कराती है। अवसर्पिणी कल्पकाल के चतुर्थकाल ( कृतयुग) में मानव आदि प्राणी साक्षात् अर्हन्त केवलज्ञानी का दर्शन-पूजन करते थे, परन्तु इस पंचम कलिकाल में तीर्थंकर केवलज्ञानी का अभाव है अतः उनकी साकार मूर्ति बनाकर मन्त्रों द्वारा पूर्ण प्रतिष्ठा या मूल पदार्थ की स्थापना कर मूल पदार्थ के गुणों का स्मरण करते हुए उनका दर्शन-पूजन करते हैं। जैसे भगवान महावीर को मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठापूर्वक उनके गुणों का स्मरण, दर्शन, अर्चन करना। मूर्ति के माध्यम से मूर्तिमान ( मूलवस्तु) का अर्चन करना गृहस्य ( आवक ) जन के लिए आवश्यक है, साधु के लिए नहीं।
9. चैत्यालय देवता का अर्चन
उक्त आठ देवताओं से अतिरिक्त एक नवम देवता चैत्यालय है। इस प्रकार कुल नव देवता जैनदर्शन में कहे गये हैं जिनका अर्चन, पूजन, भजन, स्तवन नित्य किया जाता है। ये पूज्य नवदेव साक्षात् जहाँ पर विराजमान रहते हैं उसको समवशरण, मन्दिर, चैत्यालय, देवालय, जिन मन्दिर, जिनगृह आदि कितने ही शुभनामों से कहा जाता है। साक्षात् नव देवों के अभाव में इनके प्रतिनिधिरूप प्रतिमा (मूर्ति) जिन स्थानों में स्थापित की जाती है उस स्थान को भी जिन मन्दिर, चैत्यालय आदि कहते हैं । जहाँ पर अनेक मन्दिर शोभावमान हों अथवा तीर्थंकरों के पंचकल्याणक स्थान हों, तथा अन्य ऋषि महात्मा - आचार्यों की तपोभूमि हो उसको पवित्र तीर्थक्षेत्र कहा जाता है। ये मन्दिर धर्म-साधन करने के आयतन, पवित्र धार्मिक
1. सागार धर्मामृत, अ. 2, श्लोक 44.
जैन शृता काव्य का उद्भव और विकास :: 65