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कोणस्थदि पत्रमान
सदूधर्मागमचैत्यचैत्यनिलयान् भक्त्या सर्वसुरासुरेन्द्रमहितान् तानष्टधेष्ट्या यजे ॥ '
सारांश- श्रेष्ठ तथा चार घातिकर्म दोषों से रहित अर्हन्त देव, सिद्ध परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सधर्म, आगम, चैत्य (प्रतिमा), चैत्यालय (मन्दिर) – ये नवदेव, देवों, देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों के द्वारा सदा पूजित होते हैं, उनकी हम सब भी आठ प्रकार की द्रव्यों के द्वारा पूजा करते हैं, इस प्रकार पूजा के आधार या निमित्त नवदेयों का कथन किया गया।
मूर्तिपूजा की उपयोगिता
वर्तमान युग में अनेक व्यक्ति यह प्रश्न उपस्थित करते हुए देखे जाते हैं कि मूर्तिपूजा करना पत्थर या धातु की पूजा करना है, क्या पत्थर की पूजा करने से कोई कल्याण हो सकता है! यह एक धर्म की रूढ़िमात्र है, आदि !
प्रश्नकर्ता से निवेदन है कि कहने मात्र से मूर्तिपूजा, मात्र रूढ़ि या निष्फल किया नहीं हो सकती। इसके विषय में अनुभव, युक्ति और प्रमाण से विचार अवश्य किया जाए तब निष्कर्ष निकल सकता है।
इस विश्व में आत्मा (जीव) अनन्त संख्यक हैं। विशुद्ध पूर्णज्ञान-दर्शन, अक्षय पूर्ण सुख (शान्ति), अक्षयपूर्ण बल, सूक्ष्मत्व, अरूपित्व, अक्षयत्व आदि अनन्तगुण आत्मा में विद्यमान हैं। इनके द्वारा ही आत्मा का स्वभाव या लक्षण कहा जाता है। आत्मा सामान्य रूप से दो प्रकार के हैं-1. कर्म से मुक्त, 2 कर्म से बद्ध। जो अज्ञान, शरीर, जन्म, मरण, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सम्पूर्ण विकारों पर विजय प्राप्त कर अपने शुद्ध स्वरूप के विकास से 'परमात्म पद' या 'जिन' पद को प्राप्त हैं वे मुक्त आत्मा हैं, जैसे 24 तीर्थकर आदि। जो आत्मा, जन्म-मरण, अज्ञान, मोह आदि विकारों से सहित हैं वे बद्ध ( संसारी) कहे जाते हैं। जैनदर्शन में आत्म- स्वतन्त्रता या आत्म विकास का इतना विशाल खुला द्वार है कि संसार का प्रत्येक कर्मबद्ध भव्य जीव परमात्मा बन सकता है, इसी सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक छहमास - आठ समयों में छह सौ आद (608) कर्म बद्ध आत्मा परमात्मा होते जाते हैं, यह आत्मा का प्रबल पुरुषार्थ स्वयंकृत हैं।
बद्ध आत्मा को मुक्त या परमात्मा पद को प्राप्त करने में दो कारण हैं1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण बद्ध आत्मा को परमात्मा होने में, आत्मा स्वयं समर्थ उपादान कारण है। वह आत्मा स्वयं अपने पौरुष से ही परमात्मा हो जाता है। जैनदर्शन में कोई एक रजिस्टर्ड सृष्टिकर्ता, निर्वाचित परमात्मा नहीं माना गया
२. सरल जैन विवाह विधि सं.पं. मोहनलाल शास्त्री जवाहरगंज जबलपुर, सन् 1965, पृ. 24. जैन पूजा - काव्य का उद्भव और विकास : 67