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का पूर्णज्ञान स्पष्ट रूप से होता है और प्रमाण के द्वारा विज्ञात पदार्थ के, विवक्षावश एकदेश (आशिक) ज्ञान को नय कहते हैं। नय दो प्रकार का होता है--1. निश्वयनय, 2. व्यवहारनय । निश्चयनय अपेक्षायश वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कथन करता है और व्यवहार नय किसी अपेक्षा से वस्तु के बाह्यरूप का कथन करता है।
निश्चयनय की दृष्टि से अर्हन्त, सिद्ध आदि पंच परमेष्ठी देयों की शुद्ध आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुणों का, अपने चित्त में चिन्तन करना भाव प्रतिमा का अर्चन कहा जाता है। शुद्ध जात्मा का प्रभाव अशुद्ध आत्मा पर अवश्य ही होता है। अर्हन्त सिद्ध आदि शुद्ध आत्मा के गुणों का स्मरण करना अपने आत्मा के गुणों का स्मरण या अर्चन हो जाता है, कारण कि जगत् के सब ही आत्माद्रव्य ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त गुणस्वरूप ही हैं। इस विषय को तय करन-शुदाचारः सदा घोषित किया गया है
जो जाणदि अरहतं, दव्यत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं।
सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लय।' सारांश-जो समीचीन श्रद्धा वाला मानव, द्रव्य-गुण और पर्यायों (दशाओं) की अपेक्षा से भगवान अर्हन्त के प्रति श्रद्धा करता है, जानता है, गुणों का स्मरण करता है, वह मानव आत्मा को जानता है, श्रद्धा करता है तथा गुणस्मरण करता है, कारण कि आत्म-स्वभाव एक अखण्ड अविनाशी है। उस मानव के मोह, राग, द्वेष, अज्ञान आदि विकार नष्ट हो जाते हैं और वह परमविशुद्धि के लिए दर्शनज्ञानचारित्र की साधना सम्यक् रीति से करता है। यह निश्चय दृष्टि से अर्हन्त आदि की भाव प्रतिमा का भाव पूजन है। इस पूजन में उपादान कारण भक्त (पूजक) की आत्मा है और निमित्तकरण अर्हन्त को आत्मा है, यहाँ पर उपादान निमित्त सम्बन्ध जानना आवश्यक है।
अब व्यवहार दृष्टि से उपादान निमित्त कारण पर विचार किया जाता है, व्यावहारिक दृष्टि से भी भक्त (पूजनकता) की आत्मा उपादान कारण है और भक्त का शरोर, पूजन की सामग्री तथा अर्हन्त भगवान की प्रतिमा (मूर्ति), और पन्दिर निमित्त कारण हैं। साक्षात् मूर्तिमान अर्हन्त आदि परमेष्ठी देवों के न होने पर, उनके गुणों का स्मरण करने के लिए तथा उनमें ध्यान स्थिर करने के लिए प्रतिमा की आवश्यकता होती है, प्रतिमा का प्रभाव भक्त के हृदय पर अवश्य प्रभाषक होता है, यह एक प्रबल निमित्त है।
योग्य निमित्त का संयोग होने पर जो वस्तु स्वयं शक्ति से कार्यरूप परिणत हो जाए उसे उपादान कारण कहते हैं। जो वस्तु स्वयं कार्यरूप तो न हो परन्तु कार्य
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1. कुन्दकन्द : प्रवचनसार : सं. आदिनाथ उपाध्ये, प्र.-राजचन्द्र शास्त्रपाला, अगास (गुजरात), सन्
1954. पृ. 91. अ. 1, मा. 80.
जेन पूजा-काव्य का उम्भव और विकास :: 59