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भावनाज्ञान का चमत्कार देखिए--
पिहितकारागारे तमसि च सूचीमुखाग्रदुर्भेद्ये ।
मयि च निमीलितनयने तथापि कान्ताननं दृष्टम्।। अर्थात-एक पुरुष कारागार (जेलखाना) में विशाल ऊँची तथा अनेक दीवारों से घिरी हुई काल कोली के अन्दर बैठा है, अत्यन्त घनघोर अन्धकारमय रात्रि का समय है, उसने वस्त्र लगाकर अपनी आँखें भी बन्दकर ली हैं तो भी भोपना-ज्ञान के बल से उसने अपनी प्रिय स्त्री का सुन्दर मुख देख लिया । उसने भावना-ज्ञान के द्वारा अपनी स्त्री का अनुभव कर लिया और चक्षु इन्द्रिय ने अपना काम नहीं किया। इसी प्रकार बिना इन्द्रियों के ज्ञानी पुरुष भावना ज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ परमात्मा का अनुभव कर लेते हैं तथा उनकी आत्मा में बहुत आनन्द होता है। पापों से, इन्द्रियभोगों से, क्रोधादि कषायों से विरक्ति होती है। इससे सिद्ध होता है कि कोई परमात्मा अवश्य है।
यदि अर्हन्त परमात्मा न होते तो द्वादशांग का विशाल ज्ञान, न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, गणित आदि विषयों का ज्ञान तथा कला विज्ञान कहाँ से होता अर्थात् कहीं से भी प्राप्त नहीं हो सकता था। सर्वदर्शी परमात्मा ही यह विशेष ज्ञान प्रदान कर सकता है। उसको ही अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है, वे ही इस विश्व में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। इन सब प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि इस विश्व में सर्वज्ञ परमात्मा अवश्य है, इसलिए उसकी उपासना, भक्ति-पूजन करना मानव का परम कर्तव्य है। आचार्यों का वचन है--
परमेष्ठी परंज्योतिः विरागो विमलः कृती।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्त सार्वः शास्तोपलाल्पते॥ इस श्लोक का स्पष्ट अर्थ यह है कि जो परमात्मा, उत्कृष्ट ज्ञानी, 18 दोषहीन वीतरागी, कर्मदोष से रहित, पूर्ण सिद्धि को प्राप्त, सर्वदर्शी, अबिनाशी, समस्त प्राणियों का हितकारी हो वह महात्मा ही सत्यार्थ उपदेशी अथवा पदार्थ विज्ञान का विशद् व्याख्याता होता है। उक्त प्रमाणों से सर्वज्ञसिद्ध होने पर उसकी उपासना करना उचित एवं आवश्यक है। जैन पूजा के बाह्य आधार का द्वितीय प्रकार
जैन उपासना का प्रथम बाह्य आधार 'देव-शास्त्र-गुरु' है। जैन उपासना के बहिरंग निमित्त नव देवता कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-अरिहन्तदेव, सिद्धदेव,
1. प्रमेयरलमाला : सं.प. हीरालाल जैन, प्र.-चौखम्भा विद्याभवन वाराणसी. पू. ५१, सन्-1964 ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 7 अ., प्र.-जनेन्द्र प्रेस ललितपुर सं. । सं. पं. माणिकयन्द्र न्यायतीर्थ,
52 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन